Book Title: Anusandhan 2009 07 SrNo 48
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 71
________________ ६२ अनुसन्धान ४८ में आद्यमंगल के रूप में पंचपरमेष्ठि के पश्चात् 'नमो बंभीए लिवीए' और 'नमो सुयस्स' ये पाठ मिलते हैं । यहाँ ब्राह्मी लिपि और श्रुत को नमस्कार है, किन्तु श्रुतदेवता को नहीं है । अतः श्रुतदेवता की कल्पना कुछ परवर्ती है। संभवतः हिन्दू देवी सरस्वती की कल्पना के बाद ही सर्वप्रथम जैनों ने श्रुतदेवता के रूप में सरस्वती को मान्यता दी होगी । यद्यपि मथुरा से मिले पुरातात्त्विक साक्ष्य इसके विपरीत है, उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि विश्व में सरस्वती की कोई सबसे प्राचीन प्रतिमा है तो वह जैन सरस्वती ही है (देखे - चित्र २) । वर्तमान में उपलब्ध सरस्वती की यह प्रतिमा मस्तकविहीन होकर भी हाथ में पुस्तक धारण किए हुए हैं एवं ब्राह्मी लिपि के अभिलेख में 'सरस्वती' के उल्लेख से युक्त है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि ईसा की प्रथम या द्वितीय शताब्दी में जैन परम्परा में श्रुतदेवी या सरस्वती की उपासना प्रारम्भ हो गई थी। मथुरा से प्राप्त इस सरस्वती की प्रतिमा में सरस्वती को द्विभुजी के रूप में ही अंकित किया गया है, किन्तु उसके एक हाथ में पुस्तक होने से यह भी स्पष्ट है कि वह सरस्वती या श्रुतदेवी की ही प्रतिमा है । यह स्पष्ट है कि जैनों में प्रारम्भिक काल में सरस्वती की श्रुतदेवी के रूप में ही उपासना की जाती थी । अन्य परम्पराओं में भी उसे वाक्देवी कहा ही गया है, यद्यपि भगवतीसूत्र के नवम् शतक के ३३ वें उद्देशक के १४९ सूत्र में 'सरस्वती' शब्द आया है । किन्तु वहाँ वह जिनवाणी का विशेषण ही है । इसी शतक के इसी उद्देशक के १६३ वें सूत्र में भी "सव्वभासाणुगामिणीए सरस्सईए जोयणणीहारिणा सरेणं अद्धमागहाए भासाए भासइ धम्म परिकहेइ'' इससे वह जिनवाणी (श्रुतदेवता) ही सिद्ध होती है । इसके अतिरिक्त भगवतीसूत्र के १० वे शतक में असुरकुमारों में गन्धर्व-इन्द्र गीतरति की चार अग्रमहिषियों में भी एक का नाम 'सरस्वती' उल्लेखित है । इसी प्रकार ज्ञाताधर्मकथा के द्वितीय श्रुत स्कन्ध के पंचम वर्ग के ३२ अध्ययनों में ३२ वे अध्ययन का नाम भी 'सरस्वती' है । यहाँ एक देवी के रूप में ही उसका उल्लेख हैं, किन्तु ये सभी उल्लेख अति संक्षिप्त हैं । इसी क्रम में अंगसूत्रों में विपाकसूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध 'सुखविपाक' के दूसरे अध्ययन में ऋषभपुर नगर के राजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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