Book Title: Anusandhan 2007 10 SrNo 41
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 10
________________ October-2007 हर्मन जेकोबीना लेखनो जवाब ले. पं. गम्भीरविजय गणि ॥६० ॥ नमो वीतरागाय ॥ स्वस्थानश्री भावनगर पन्यास गम्भीरविजयगणिप्रक्रान्तोऽथ प्रोफेसर जेकोबीयें जे श्रीआचाराङ्गनो तरजुम्मो करतां बीजा श्रुतस्कन्ध मध्ये अध्ययन२ना उद्देशो-१०, सूत्रपाठ-२ना तरजुम्मा विषे "सिया णं परो बहुअट्ठिएण मंसेण वा मच्छेण वा उवणिमंतिज्जा" इत्यादि सूत्रपाठनो अर्थ- बहु हाडकावाला मांस तथा बहु कांटावाला मच्छे करी कदाचित् गृहस्थ आमन्त्रण करें - इत्यादिक प्रकारे कर्यो छे, ते आ अर्थ आ स्थलमा घणो विपरीत नथी, पण तेमने भोगक्रियानो विषयप्रमुख समझाणो नथी. तेथी केटलोक विपरीत छे तेनो खुलासो नीचे मुजब जुओः प्रथम तो जैन शास्त्रोनो अर्थ गुरुगमनें आधीन रह्यो छे. तेथी स्वतन्त्रपणे एकला न्यायें के व्याकरणना बलथी यथार्थ कोईथी बनी शकतो नथी. वास्ते ज घणा आगमोमां कह्यो छे: “गुरुमइऽहीणा सव्वे सुत्तत्था - गुरुमत्यधीनाः सर्वे सूत्रार्थाः" इत्यादि. वास्ते आ सूत्रना अर्थमां पण गुरुगमनी जरूरता छे. तेथी वृत्तिकारो पण विस्तारना भयथी कदि अक्षरार्थ मुकी देय छे, तोहि तेओं गुरुगम भागनी दिशिनो दर्शावतो करें छे. वास्ते वृत्तिकार भगवाने अक्षरार्थ तो आ सूत्रनो को नथी पण तेमने जे दिशि दर्शावेली छे ते दिशिना अनुसारथी अर्थ जे मुजब थाय छे ते अर्थ आ छे : . . प्रथम तो सिया णं आ पदनो अर्थ तेमने घणा सम्बन्धवालो सूचव्यो छे जे - "सिया णं - स्यात् कदाचित् क्वचिदेव महारोगावस्थायां प्रचुरधर्महान्यां सञ्जायमानायां सत्यां भिक्षुः कुशलवैद्योपदेशेन यद्यस्पर्शनीयमपि (नीयस्याऽपि) मांसस्य स्पर्शने समुद्भूतप्रयोजनवान् स्यात् तदा ज्ञानाद्यर्थी सन् तं गवेषयेत् । गवेषयंश्च साधोः परो-भिक्षुसमूहादन्यो गृहस्थः" । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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