Book Title: Anusandhan 2007 10 SrNo 41
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 51
________________ अनुसन्धान-४१ २०वीं शती के तीन प्रमाण मुझे प्राप्त हुए हैं । तपागच्छीय दीपविजय कविराज बहादुर ने केसरियानाथजी के माहात्म्य को लेकर केसरियानाथ की लावणी विक्रम संवत् १८७५ में लिखी है। यह लावणी हिन्दुपतिपातशाह महाराणा भीमसिंह के राज्य में उदयपुर में लिखी गई है। मेवाड़ देश के धुलेवा नगर में आदिनाथजी (केसरियानाथजी) की मूर्ति विराजमान है। यह मूर्ति अत्यन्त प्राचीन है । त्रेतायुग में लंकापति रावण द्वारा यह मूर्ति पूजित रही । भगवान रामचन्द्र द्वारा लंका पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् उस मूर्ति को रामचन्द्र जी पूजनार्थ लंका से अयोध्या ले जा रहे थे । उज्जैन में ही यह मूर्ति अचल हो गई और आगे न बढ़ी फलतः यह मूर्ति वही विराजमान रही । उज्जैन में ही महाराज प्रजापाल की पुत्री मदनसुन्दरी के अत्याग्रह से कुष्ठ रोगी श्रीपाल ने भी पूजा की । इस मूर्ति के न्हवण/प्रक्षाल जल के छिडकाव से श्रीपाल के साथ ७०० कुष्ठ रोगियों का भी कुष्ठ रोग शान्त हो गया । कुछ समय बाद यह मूर्ति वागड़ देश के बड़ौद नगर में विराजमान रही । दिल्लीपति मुगल नरेश महाराणाओं से लड़ने के लिए सेना लेकर आया। भयंकर युद्ध हुआ, किन्तु वह विजय प्राप्त न कर सका । वहाँ से मूर्ति गाड़े में रखकर धुलेवा नगर के जंगल में गुप्त रूप से रखी गई । गोवालियों के द्वारा ज्ञात होने पर संघ ने मिलकर इस मूर्ति को प्रकट किया और संघ ने उस वंशजाल से उस मूर्ति को निकाला । मूर्ति कुछ क्षत-विक्षत हो गई थी । उस मूर्ति पर लापसी का लेप किया गया, फिर भी कुछ अंशों में मूर्ति पर निशान रह गए । बड़े महोत्सव के साथ यह मूर्ति मन्दिर बनाकर स्थापित की गई । संवत् १८६३ में मराठा भाऊ सदाशिवराय ने लूटपाट के हेतु मेवाड़ पर हमला किया । उसने सुन रखा था कि जन मानस के आराध्य देव धुलेवानाथ के भण्डार में बहुत द्रव्य है । लूटने के लिए वहाँ आया। अधिष्ठायक भैरुं देव ने घोड़े पर चढ़कर रक्षा की । मराठों के पास विशाल सैन्य था । भयंकर युद्ध हुआ । इस युद्ध में धुलेवाधणी (कालाबाबा) के १. पद्य संख्या ६१, ६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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