Book Title: Anusandhan 2002 07 SrNo 20
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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अनुसंधान-२०
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पुष्करार्धे प्रणमाम्यमं
हं पदे तेऽजितवीर्यदे जि | नो यकान् देवयशा इया
त | एव रम्या जगतीह दे शाः व्याख्या : हे अजितवीर्य देव ! अहं श्रीपुष्करा॰-पुष्करवरद्वीपाढे ते-तव पदे-पादुके प्रणमामि । किंविशिष्टे ? अमन्दे-अजिह्मे ॥ अथापरार्द्धव्याख्या:- देवयशोजिनो यकान् देशान् इयाय- जगाम, इह जगति, विश्वे त एव देशा रम्या-रमणीया इति वृत्तार्थ : ॥१०॥ अथैकाद[श]वृत्तस्थापना
सिद्धचैत्येष्वृषभस्य से । द्धया महत्या विबुधैरका डर्द्धसंख्येऽत्र जगत्यशे व्यानतो नन्दतु वारिषे । णः
व्याख्या : श्रीसिद्धचैत्येषु-सिद्धायतनेषु विबुधैः-देवैर्महत्या-प्रौढया ऋद्ध्या-समृद्ध्या ऋषभस्य-शाश्वतजिनस्य सेवा-पर्युपास्तिरकारि चक्रे ॥ अथापरार्द्धव्याख्या:- वारिषेणो जिनः अत्र षडद्धसंख्ये- षण्णामर्द्ध षडईत्रयः, तत्समाना संख्या यस्य तत्तथा- त्रैलोक्य इत्यर्थः । जगति-विश्वे अशेषेसमस्ते भव्यानतो(त)-आसन्नसिद्धिकैर्नतो-नमस्कृत: नन्दतु-समृद्धि भजत्वित्यर्थः ॥११।। अथ द्वादशवृत्तस्थापना
2A
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द्राननार्केदुमहांसि या गोस्तु तावत्त्वयि मे पर मोस्तु ते शाश्वतचैत्यभू नाग्यपुंद्राय च वर्द्धमा
A
1
व्याख्या : हे चन्द्राननजिन ! यावदर्केन्दुमहांसि -- सूर्यचन्द्रतेजांसि वर्तन्ते । हे परर्द्ध ! पर: -- प्रकृष्टः ऋद्धः परर्द्धः, तस्यामन्त्रणं हे परर्द्ध ! मे--
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