Book Title: Anekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04 Author(s): Jaikumar Jain Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 6
________________ अनेकान्त/54-1 अध्यात्म को उग्र विरोध का सामना करना पड़ा था। फिर भी, सोनगढ़ की आधारभूत शैली और कहानजी के प्रति दृढ आस्था में कोई अन्तर नहीं पड़ा और वे दिगम्बर जैन धर्म की वीतरागता की आड़ में अपना उल्लू सीधा करते रहे तो दूसरी ओर समाज की स्थिति भी आश्चर्यजनक रूप से ढाक के पत्ते के समान ही बनी रही। ___ वस्तुत: इस सोनगढ़ के जनक थे-कहानजी भाई, जो कहानजी स्वामी के रूप में विख्यात हुए और उनकी ख्याति का सबसे बड़ा कारण था उनका स्थानकवासी सम्प्रदाय से दिगम्बर परम्परा में आना। उनके इस परिवर्तन में दिगम्बर जैन परम्परा पोषक अनुयायियों ने सोचा था कि एक अन्य परम्परा में जन्में कहानजी को सद्बुद्धि आयी है और उनके साथ हजारों अनुयायी भी उनके अनुसा बने हैं तो अच्छा ही है, परन्तु उन्हें क्या मालूम था कि इस पंथ परिवर्तन की आड़ में छद्म निहित स्वार्थ छुपा हुआ है। बात तो धीरे-धीरे तब खुली जब स्वार्थ की परतें एक के बाद एक खुलती गई और लोगों को तथा दिगम्बर जैन धर्म के मनीषी विद्वानों को अहसास होने लगा कि यह तो स्वयं को स्थापित एवं प्रचारित करने का महज हथकण्डा और कुचक्र है। परिणाम स्वरूप धर्म प्रेमियों और विद्वानों ने विरोध का परचम लहराया, परन्तु स्वर्णपुरी के वैभव और स्वार्थान्ध लोगों के निहित स्वार्थ बदस्तूर जारी रहे। कहानजी भाई के सौम्य व्यक्तित्व और आभामण्डल की चामत्कारिक छाया में परम्परा विघातक गतिविधियाँ दीमक की तरह पनपती रहीं। ऐसा भी नहीं था कि समाज सोया था। समाज के जागरूक लोगों ने यथावसर हर स्तर पर उनका विरोध किया। यहाँ तक कि जब उन्होंने अपने स्वयम्भू आयतनों में सूचना लगायी कि यहाँ मात्र सोनगढ़ और कहानपंथी आगम का ही स्वाध्याय किया जायगा तब उनके आगमों को (जो परम्परा विरोधी ही थे) जलसमाधि देने में भी लोग नहीं झिझके। जगह-जगह काले झण्डों से कहानजी भाई का स्वागत किया गया। इस प्रकार स्वयम्भू भावी तीर्थकर और सद्गुरुदेव का आभामण्डल जब फीका पड़ने लगा तब भी उनके अनुयायियों-मुमुक्षुओं का यकीन पूर्ववत् बना रहा-उनकी दृष्टि मेंcesecececececececececececececececocePage Navigation
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