Book Title: Anekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 4
________________ प्रोम् अहम् अनेकाना परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविषानम् । सकलनयविलसिताना विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ । वर्ष २१ किरण १ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६४, वि० सं० २०२५ प्रप्रेल सन् १९६८ स्वयम्भू स्तुतिः स्वयंभुवायेन समुद्धतं जगज्जडत्वकूपे पतितं प्रमावतः । परात्मतत्त्व प्रतिपादनोल्लसद्वचो गुणैरादि जिनः स सेव्यताम् ॥१ -पानन्द्याचार्य अर्थ-स्वयम्भू-स्वयं ही प्रबोध को प्राप्त हुए जिस प्रादि (ऋषभ) जिनेन्द्र ने प्रमाद के वश होकर प्रज्ञाननारूप कुएं में गिरे हुए जगत के प्राणियो का परतत्त्व और प्रात्मतत्त्व (अथवा उत्कृष्ट प्रात्मतत्त्व) के उपदेश मे शोभायमान वचनरूप गुणो से उद्धार किया है उस आदि जिनेन्द्र की प्राराधना करना चाहिए। भावार्थ-इस पद्य में प्रयुक्त 'गुण' दाब्द के दो अर्थ है-हितकारकत्व आदि गुण तथा रस्सी । उसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार कोई मनुष्य यदि असावधानी से कुएँ मे गिर जाता है तो इतर दयालु मनप्य कुएं में रस्सियो को डालकर उनके सहारे से उसे बाहर निकाल लेते है। इसी प्रकार भगवान आदि जिनेन्द्र ने जो बहुत से प्राणी अज्ञानता के वश होकर धर्म के मार्ग से विमुख होते हुए कष्ट भोग रहे थे उनका हितोपदेश के द्वारा उद्धार किया था-उन्हे मोक्षमार्ग में लगाया था। उन्होने उनको ऐसे वचनो द्वारा पदार्थ का स्वरूप समझाया था जो कि हितकारक होते हुए उन्हे मनोहर भी प्रतीत होते थे। 'हित मनोहारि च दुर्लभ वचः' इस उक्ति के अनुसार यह सर्वसाधारण को सुलभ नहीं है ॥१

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