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अनेकान्त
[वर्ष ९ .
वास्तविक जाति भेदके विरुद्ध है । । इसके सिवाय, और धर्मश्रवणके लिये शूद्रोंका समवसरणमें जाना आदिपुराणमें दूषित हुए कुलोंकी शुद्धि और अन- प्रगट है।" क्षरम्लेच्छों तकको कुलशुद्धिादिके द्वारा अपनेमें इस अंशको 'समोशरण' जैसे कुछ शब्द-परिमिला लेनेकी स्पष्ट आज्ञाएँ भी पाई जाती हैं । ऐसे वर्तनके साथ उद्धृत करनेके बाद अध्यापकजी लिखते उदार उपदेशोंकी मौजूदगीमें शुद्रोंके समवसरणमें हैं-"इस लेखको आप संस्कृत हरिवशपुराणके जाने आदिको किसी तरह भी आदिपुराण तथा प्रमाणों द्वारा सत्य सिद्ध करके दिखलावें। आपको उत्तरपुराणके विरुद्ध नहीं कहा जा सकता । इसकी असलियत स्वयं मालूम होजावेगी।" विरुद्ध न होनेकी हालतमें उनका 'अविरुद्ध' होना मेरी जिनपूजाधिकारमीमांसा पुस्तक आजसे सिद्ध है, जिसे सिद्ध करनेके लिये अध्यापकजी १००) कोई ३५ बर्ष पहले अप्रेल सन् १९१३में प्रकाशित रु०के पारितोषिककी घोषणा कर रहे हैं और उन हुई थी। उस वक्त तक जिनसेनाचार्यके हरिवंश
को बाब राजकृष्ण प्रेमचन्दजी दरियागज पुराणकी पं. दौलतरामजी कृत भाषा वचनिका ही कोठी नं० २३ देहलीके पास जमा बतलाते हैं। लाहौरसे (सन् १९१०में) प्रकाशमें आई थी और वही
चैलेख-लेखमें मेरी जिनपूजाधिकामीमांसा' अपने सामने थी। उसमें लिखा थापुस्तकका एक अंश उद्धृत किया गया है, जो निम्न . "जिस समय जिनराजने व्याख्यान किया उस प्रकार है
समय समवसरणमें सुर-असुर नर तिरयश्च सभी ___"श्रीजिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण (सर्ग २) थे, सो सबके समीप सर्वज्ञने मुनिधर्मका व्याख्यान में, महावीर स्वामीके समवसरणका वर्णन करते हुए किया, सो मुनि होनेको समर्थ जो मनुष्य तिनमें लिग्वा है-समवसरणमें जब श्रीमहावीर स्वामीने केईक नर संसारसे भयभीत परिग्रहका त्याग कर मुनिधर्म और श्रावकधर्मका उपदेश दिया तो उसको मुनि भये शुद्ध है जाति कहिये मातृपक्ष कुल कहिये सुनकर बहुतसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य लोग मुनि पितृपक्ष जिनके ऐसे ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य सैकड़ों होगये और चारों वर्गों के स्त्री-पुरुषोंने अर्थात साधु भये ।। १३१, १३२ ॥ "और कैएक मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंने श्रावकके बारह चारों ही वर्णके पश्च अणुव्रत तीन गुणव्रत चार । व्रत धारण किये । इतना ही नहीं किन्तु उनकी पवित्र- शिक्षा व्रत धार श्रावक भये । और चारों वर्णकी वाणीका यहाँ तक प्रभाव पड़ा कि कुछ तिर्यश्चोंने कईएक स्त्री श्राविका भई ॥१३४।। और सिंहादिक भी श्रावकके व्रत धारण किये। इससे, पूजा-वन्दना तिर्यंच बहुत श्रावके व्रत धारते भये, यथाशक्ति १ वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्न च दर्शनात् । नेमविषै तिष्ठे ।।१३।।" ब्राह्मण्यादिषु शूद्राद्यैर्गर्भाधान-प्रवर्तनात् ।।
इस कथनको लेकर ही मैंने जिनपूजाधिकारनास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाऽश्ववत् ।
मीमांसाके उक्त लेखांशकी सृष्टि की थी । पाठक श्राकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्पते ॥-उ. पु. गुणभद्र देखेंगे, कि इस कथनके आशयके विरुद्ध उसमें कुछ २ "कुतश्चित्कारणाद्यस्य कुलं सम्प्राप्तदूषणम् । भी नहीं है । परन्तु अध्यापकजी इस कथनको शायद 'सोऽपि राजादिसम्मत्या शोधयेत्स्वं यदा कुलम् ॥४०-१६८ मुलग्रन्थके विरुद्ध समझते हैं और इसी लिये संस्कृत तदाऽस्थोपनयाहत्वं पुत्र-पौत्रादि-सन्ततौ ।
हरिवंशपुराणपरसे उसे सत्य सिद्ध करनेके लिये न निषिद्ध हि दीक्षाहें कुले चेदस्य पूर्वजाः ॥-१६६॥ कहते हैं। उसमें भी उनका श्राशय प्रायः उतने ही "स्वदेशेऽनक्षरम्लेच्छान् प्रजा-बाधा-विधायिनः । अशसे जान पड़ता है जो शूद्रोंके समवसरणमें कुलशुद्धि-प्रदानाद्यः स्वसात्कुर्यादुपत्रमैः ॥ ४२-१७६ ॥ उपस्थित होकर व्रत ग्रहणसे सम्बन्ध रखता है और
-श्रादिपुराणे, जिनसेनः। उनके प्रकृत चैलेंज-लेखका विषय है। अतः उसीपर
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