Book Title: Anekant 1948 05
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 31
________________ किरण ५] जैनधर्म बनाम समाजवाद १९५ लादा जा सके। नैतिकता और बलप्रयोग ये दोनों कम्मुणा बम्भणो होई कम्मुणा होई खत्तियो । परस्पर विरोधी हैं। अतएव जैनधर्मने ब्रह्मचर्यकी वइसो कम्मुणा होई सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥ भावना-द्वारा स्वनिरीक्षणकी प्रवृत्तिपर जोर दिया है, इस प्रकार सामाजिक भेद-भावकी खाईको क्योंकि इस प्रक्रिया-द्वारा नैतिक जीवनका श्रीगणेश जैनाचार्योंने दूरकर समाजको एक संगठनके भीतर होता है । अहिंसाका पालन भी ब्रह्मचर्यके पालनपर आबद्ध करनेका प्रयत्न किया है। आश्रित है । सामाजिक जीवनमें संगठनकी शक्ति भी राजनैतिक दृष्टिकोण इसीके द्वारा जागृत होती है। बिना संयमके समाजकी व्यवस्था सुचारुरूपसे नहीं की जा सकती है, ____यद्यपि धर्मका राजनीतिसे सम्बन्ध नहीं है, फिर भी समाज और व्यक्तिके साथ सम्बन्ध रहनेसे राजक्योंकि सामाजिक जीवनका आधार नैतिकता ही है। नीतिके साथ भी सम्बन्ध मानना पड़ता है । जैनधर्म प्रायः देखा जाता है कि संसारमें छीना-झपटीकी दो सदासे प्रजातन्त्र राज्यका समर्थक रहा है। इतिहास ही वस्तुएँ हैं, कामिनी और कञ्चन । जबतक इन दोनोंके प्रति आन्तरिक संयमकी भावना उत्पन्न न इस बातका साक्षी है कि भगवान महावीरके पिता महाराज सिद्धार्थ वैशालीकी जनता-द्वारा चुने गये होगी तबतक सामाजिक जीवन कण्टकाकीर्ण माना शासक थे। जैसे प्राचीन राजनीतिके प्रन्थ कौटिलीय जायगा। सारांश यह है कि जीवन-निर्वाह-शोरीरिक अर्थशास्त्रमें राजाको ईश्वरीय अंश मानकर उसकी आवश्यकताकी पूर्ति के लिये अपने उचित हिस्सेसे सर्वोपरि शक्ति स्वीकार को है, वैसे जैनधर्ममें नहीं । अधिक ऐन्द्रियिक सामग्रीका उपयोग न करना व्याव __ जैन राजनीतिमें राजा शब्दका प्रयोग राज्यकी जनता हारिक ब्रह्म-भावना है। अपरिग्रहकी भावना-द्वारा समाजमें सख और द्वारा निवोचित व्यक्तिके रूपमें ही हआ है. इसीलिये शान्ति स्थापित की जाती है। इसके सम्बन्ध में पहले राजाको जनताके धर्म, अर्थ और काम इन तीनों लिखा जा चुका है। वोंकी समानरूपसे उन्नति करनेवाला, संगठनसमाजमें ऊँच-नीच और लालतकी भावनाको कर्ता माना है । राज्यके प्रत्येक व्यक्तिके वैयक्तिक पुष्ट करनेवाली जन्मना वर्ण-व्यवस्थाको जैनधर्ममें आचरणका विश्लेषण करते हुए कहा गया है नहीं माना है। जैनाचार्योंने स्पष्टरूपसे समाजके समस्त "सर्वसत्त्वेषु' हि समता सवोचरणानां परमाचरणम" . . सदस्योंको मानवताकी दृष्टिसे एक स्तरपर लानेके अर्थात-उस राष्ट्र के समस्त प्राणियोंमें समानतालिये आचारको महत्ता दी है । जिस व्यक्तिका सदा- का व्यवहार करना ही परमाचरण है । तात्पर्य यह है चार जितना ही समाजके अनुकूल होगा, वह व्यक्ति कि लौकिक दृष्टिसे व्यक्ति-स्वातन्त्र्यको स्वीकार करते उतना ही समाजमें उन्नत माना जायगा, किन्तु स्थान हुए भी समाजको उच्च स्थान प्रदान कर उसके उसका भी सामाजिक सदस्यके नाते वही होगा जो प्रत्येक घटकके साथ भाई-भाईकासा व्यवहार अनुअन्य सदस्योंका है । दलितवर्गका शोषण और शासित ढङ्गसे सम्पन्न करना परम कर्तव्य निर्धारित जातिवादके दुरभिमानको, जिससे समाजको अहर्निश किया गया है। इस कर्त्तव्यकी अवहेलना जनता खतरोंका सामना करना पड़ता है, जैनधर्ममें स्थान द्वारा निर्वाचित राजा भी नहीं कर सकता है। नहीं दिया है। जैन तीर्थङ्करोंने एक मनुष्य जाति लोकतन्त्रके सिद्धान्तों-द्वारा समाजके सभी मानकर व्यवहार-मूलक वर्णव्यवस्था' बतलाई है- सदस्योंके हितकी बातोंमें सभीका मत लेना आवश्यक १ मनुष्यजातिरेकैव जातिकर्मोदयोद्भवा । है। जैन राजनीतिकारोंने तो स्पष्टरूपसे कहा है कि वृत्तिभेदा हि तभेदाच्चतुर्विध्यमिहाश्नुते ॥श्रा.पु. ३८४५ मनुष्य और उसके विचार समयकी आर्थिक परिनास्ति जातिकृती भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् । प्राकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्प्यते ॥ -गुणभद्र १ नीतिवाक्यामृत धर्मसमुद्देश। सूत्र ४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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