________________
किरण ५ ]
गई बल्कि वे सब मेरे पास रह गये हैं और जिन्हें मैंने बिना अधिकारके अपने ही काममें ले लिया है - तुम्हारे निमित्त उनका कुछ भी खर्च नहीं किया है । जहाँ तक मुझे याद हैं सन्मतीके पास पैरोंमें चाँदी के लच्छे व झाँवर, हाथोंमें चाँदी के कड़े व पलेली, कानोंमें सोनेकी बाली - भूमके, सिरपर सोनेका चक और नाक में एक सीनेकी लोङ्ग थी, जिन सबका मूल्य उस समय १२५ ) रु० के लगभग था । और विद्याके पास हाथोंमें दो तोले सोनेकी कडूलियाँ चाँदीकी सरीदार, जिन्हें दादीजीने बनवाकर दिया था, तथा पैरोंमें नोखे थे, जिन सबकी मालियत ७५) रु०के करीब थी । दोनों के पास ५०) रु०के करीब नक़द होंगे। इस तरह जेवर और नकदीका तखमीना २५०) रु०के करीबका होता है, जिसकी मालियत आज ७००) रु०के लगभग बैठती है । और इस लिये मुझे ७००) रु० देने चाहियें, न कि २५०) रु० । परन्तु मेरा अन्तरात्मा इतनेसे भी सन्तुष्ट नहीं होता है, वह भूलचूक आदि के रूपमें ३००) रुपये उसमें और भी मिलाकर पूरे एक हजार कर देना चाहता है । अतः पुत्रियो ! आज मैं तुम्हारा ऋण चुकाने के लिये १०००) रु० ' सन्मति - विद्या - निधि' के रूपमें वीर सेवामन्दिरको इसलिये प्रदान कर रहा हूं कि इस निधिसे उत्तम बाल - साहित्यका प्रकाशन किया जाय – 'सन्मति विद्या' अथवा 'सन्मति -विद्याविनोद' नामकी एक ऐसी आकर्षक बाल-ग्रन्थमाला निकाली जाय जिसके द्वारा बिनोदरूपमें अथवा बाल-सुलभ सरल और सुबोध पद्धति से सन्मति जिनेन्द्र (भगवान् महावीर ) की विद्या - शिक्षाका समाज और देशके बालक-बालिकाओं में यथेष्टरूपसे सवार किया जाय - उसकी उनके हृदयोंमें ऐसी जड़ जमा दी जाय जो कभी हिल न सके अथवा ऐसी छाप लगा दी जाय जो कभी मिट न सके ।
सन्मति विद्या विनोद
मेरी इच्छा-
मैं चाहता हूँ समाज इस छोटीसी निधिको अपनाए, इसे अपनी ही अथवा अपने ही बच्चों की पवित्र
Jain Education International
२०३
निधि समझकर इसके सदुपयोगका सतत् प्रयत्न करे और अपने बालक-बालिकाओं को सन्तान -दर- सन्तान इस निधि से लाभ उठानेका अवसर प्रदान करे। विद्वान् बन्धु अपने सुलेखों, सलाह-मशवरों और सुरुचिपूर्ण चित्रादिके आयोजनों द्वारा इस ग्रन्थमाला को उसके निर्माण कार्य में अपना खुला सहयोग प्रदान करें और धनवान बन्धु अपने धन तथा साधन सामग्रीकी सुलभ योजनाओं द्वारा उसके प्रकाशन-कार्य में अपना पूरा हाथ बटाएँ । और इस तरह दोनों ही वर्ग इसके संरक्षक और संबर्द्धक बनें । मैं स्वयं भी अपने शेष जीवनमें कुछ बाल-साहित्य के निर्माणका विचार कर रहा हूँ । मेरी राय में यह ग्रन्थमाला तीन विभागों में विभाजित की जायप्रथम विभागमें ५ से १० वर्ष तक के बच्चोंके लिये, दूसरे में ११ से १५ वर्ष तककी आयु वाले बालकबालिकाओंके लिये और तीसरे में १६ से २० वर्षकी उम्र के सभी विद्यार्थियोंके लिये उत्तम बाल-साहित्यका आयोजन रहे और वह साहित्य अनेक उपयोगी विषयोंमें विभक्त हो; जैसे बाल-शिक्षा, बाल-विकास, बालकथा, बालपूजा, बालस्तुति प्रार्थना, बालनीति, बालधर्म, बालसेवा, बाल-व्यायाम, बाल- जिज्ञासा, बालतत्त्व-चर्चा, बालविनोद, बाल-विज्ञान, बालकविता, बालरक्षा और बाल न्याय आदि । इस बालसाहित्यके आयोजन, चुनाव, और प्रकाशनादिका कार्य एक ऐसी समिति के सुपुर्द रहे, जिसमें प्रकृत विषयके साथ रुचि रखने वाले अनुभवी विद्वानों और कार्यकुशल श्रीमानोंका सक्रिय सहयोग हो । कार्यके कुछ प्रगति करते ही इसकी अलगसे रजिस्टरी और ट्रस्टकी कार्रवाई भी कराई जा सकती है।
इसमें सन्देह नहीं कि जैनसमाज में बाल-साहित्य का एकदम श्रभाव है- जो कुछ थोड़ा बहुत उपलब्ध है वह नहीं के बराबर है, उसका कोई विशेष मूल्य भी नहीं है । और इसलिये जैनदृष्टिकोण से उत्तम बाल-साहित्य के निर्माण एवं प्रसारकी बहुत बड़ी जरूरत है । स्वतन्त्र भारतमें उसकी आवश्यकता और भी अधिक बढ़ गई है। कोई भी समाज अथवा
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org