Book Title: Anekant 1948 05
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 16
________________ [ वर्ष ९ 'मिच्छादिट्टिश्रभव्वा' एक पद है और एक ही है ? – और स्वयं ही नहीं बतलाया बल्कि देवोंने— प्रकारके व्यक्तियोंका वाचक हैअर्हन्तों तथा गणधरोंने- बतलाया है ऐसा स्पष्ट मिच्छाइट्टिभव्वा तेसुमसरणी ण होंति कहाई । निर्देश किया हैतह य अज्मवसाया संदिद्धा विविधविवरीदा || ४-९३२ ।। " व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।"११-२०३ ऐसी हालत में उन चाण्डालोंको समवसरण में जानेसे कौन रोक सकता है ? ब्राह्मण होनेसे उनका दर्जा तो शुद्रोंसे भी ऊँचा होगया ! इसी तरह 'संदिग्धः ' पद भी संशयज्ञानीका वाचक नहीं है - संशयज्ञानी तो असंख्याते समवसरणमें जाते हैं और अधिकांश अपनी अपनी शकाओंका निरसन करके बाहर आते हैं- बल्कि · उन मुश्तभा प्राणियोंका वाचक है जो बाह्यवेषादिके कारण अपने विषय में शङ्कनीय होते हैं अथवा कपटवेषादिके कारण दूसरोंके लिये भयङ्कर (dangerous, risky) हुआ करते हैं। ऐसे प्राणी भी सम बसरण-सभाके किसी कोठेमें विद्यमान नहीं होते हैं। तीसरे नम्बरपर अध्यापकजीने सम्पादक जैनमित्रजीका एक वाक्य निम्न प्रकारसे उद्धृत किया है--- "समोशरण में मानवमात्रके लिये जानेका पूर्ण अधिकार है चाहे वह किसी भी वर्णका अर्थात् जाति का चाण्डाल ही क्यों न हो ।” - इसके सिवाय, म्लेच्छ देशों में उत्पन्न हुए म्लेच्छ मुनि हो सकते हैं ऐसा श्रीवीरसेनाचार्यने जयधवला मनुष्य भी सकल संयम (महाव्रत ) धारण करके जैन atara र श्रीनेमिचन्द्राचार्य (द्वितीय) ने लब्धिसार गाथा १९३की टीकामें व्यक्त किया है' । तब उन मुनियोंको समवसरण में जानेसे कौन रोक सकता है ? कोठे में बैठेंगे, उनके लिये दूसरा कोई स्थान ही नहीं है। तो गन्धकुटी के पास के सबसे प्रधान गणधर मुनि ऐसी स्थिति में अध्यापकजी किस किस आचार्यकी बुद्धिपर 'बलिहारी' होंगे ? इससे तो बेहतर यही हूँ कि वे अपनी ही बुद्धिपर बलिहारी होजाएँ और ऐसी अज्ञानतामूलक, उपहासजनक एवं आगमविरुद्ध व्यर्थ की प्रवृत्तियों से बाज आएँ । वीरसेवामन्दिर, सरसावा । ता० २-६-१६४८ १८० अनेकान्त इसपर टीका करते हुए अध्यापकजीने केवल इतना ही लिखा है - " सम्पादक जैनमित्रजी अपने से बिरुद्ध विचारवालेको पोंगापन्थी बतलाते हैं । और अपने लेख द्वारा समोशरणमें चाण्डालको भी प्रवेश करते हैं । बलिहारी आपकी बुद्धिकी ।" इससे सम्पादक जैनमित्रजी बहुत सस्ते छूट गये हैं ! निःसन्देह उन्होंने बड़ा ग़जब किया जो अध्यापकजी जैसे विरुद्ध विचारवालोंको 'पोंगापन्थी' बतला दिया ! परन्तु अपने रामकी राय में अध्यापक जीन उससे भी कहीं ज्यादा ग़जब किया है जो समसरणमें चाण्डालको भी प्रवेश कराने वालेकी बुद्धिपर 'बलिहारी' कह दिया !! क्योंकि पद्मपुराणके कर्ता श्रीरविषेणाने व्रती चाण्डालको भी ब्राह्मण बतलाया है - दूसरे सतशुद्रादिकों की तो बात ही क्या Jain Education International और स्वामी समन्तभद्रने तो रत्नकरण्ड श्रावकाचार (पद्य २८) में व्रती चाण्डाल को भी सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न होनेपर 'देव' कह दिया है और उन्होंने भी स्वयं नहीं कहा वल्कि देवोंने वैसा कहा है ऐसा 'देवा देवं विदु:' इन शब्दोंके द्वारा स्पष्ट निर्देश किया है। तब उस देव चाण्डालको समवसरण में जानेसे कौन रोक सकता है, जिसे मानव होनेके अतिरिक्त देवका भी दर्जा मिल गया ? जुगलकिशोर मुख्तार १ देखो, उक्त टीकाएँ तथा 'भगवान महावीर और उनका समय' नामक पुस्तक पृ० २६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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