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संगीतपुरके सालुवेन्द्र नरेश और जैनधर्म
ले०-कामताप्रसाद जैन, सम्पादक 'वीर' अलीगञ्ज (एटा)
बाक्षिण भारतके राजवंशोंमें होय्सल राजवंश सर्व मान बादशाहोंसे न जा मिलते तो दक्षिण भारतमें १ अन्तिम हिन्दूशासक कहा जाय तो ब्रेजा नहीं। हिन्दू राज्यका पतन शायद ही होता ! प्रस्तुत लेखमें मुहम्मदराजनीने उसी वंशके राजाको पराजित हम पाठकोंके समक्ष विजयनगर साम्राज्यके एक करके मुसलमानी शासनकी नीव दक्षिणमें डाली थी। प्रसिद्ध सामन्त राजवंशका परिचय उ हिन्दू अपनी स्वाधीनताको खोती हुई देखकर तिल- हैं, जो इतना प्रभावशाली था कि अन्ततो गत्वा उसी मिला उठे। सबका माथा ठनका और सबने यवनोंका वंशका एक पराक्रमी राजा विजयनगर साम्राज्यका विरोध करना निश्चय किया। पहले वैष्णव, शैव, अधिकारी हुआ था। लिङ्गायत और जैनोंकी आपसमें स्पर्धा घलती थी- तुलुबदेशमें संगीतपुर एक बड़ा नगर था। वह यवनोंके आक्रमणने उस स्पर्धाका अन्त कर दिया। हाडुहल्लि नामसे प्रसिद्ध था। आजकल यह स्थान वैष्णव, शैव, जैन और लिङ्गायत कन्धासे कन्धा उत्तर कनाड़ा जिले में है। उस समय यहाँ सालुवेन्द्र मिलाकर जननी जन्मभूमिकी रक्षाके लिये जुट पड़े। नरेश राज्याधिकारी थे। सारे तौलब देशपर उनका सबने मिलकर विजयनगर साम्राज्यकी स्थापना की! शासन चलता था। उनका वंश काश्यपगोत्री चन्द्रहोयसल नरेशके प्रान्तीय शासक महामण्डलेश्वर कुल का क्ष त्रयवंश था। सङ्गीतपुर उस समय निस्संदेह हरिहरराय एक पराक्रमी शासक थे। जनताने उनको एक महान नगर था.। जैनधर्मका वहाँ प्राबल्य था। ही अपना नेता चुनकर विजयनगरके राजसिंहासन- सन् १४८८ ३०के एक शिलालेखमें लिखा है कि पर बैठाया। उनके संरक्षणमें हिन्दू-शासनकी रक्षा "तौलबदेशमें सङ्गीतपुर सौभाग्यका ही निकेत था। हुई ! किन्तु यह हिन्दू साम्राज्य साम्प्रदायिकताके उसमें उत्तुङ्ग चैत्यालय बने हुए थे। वहाँपर सुखी, विषसे मुक्त था। पाकिस्तानकी तरह उसमें अल्प- समुदार और भोग-विलासमें मग्न नागरिक रहते थे। संख्यकोंका शोषण और निष्कासन नहीं किया गया हाथी-घोड़ोंसे वह भरा था। वहाँ बड़े-बड़े योद्धा, था। मुसलमान भी विजयनगरके हिन्दू साम्राज्यमें उच्चकोटिके कविगण, वादी और प्रवक्ता रहते थे ।
आजादीसे रहते ही नहीं, बल्कि राज्यशासनमें उच्च- मानो वह नगर सरस्वतीका आवास होरहा था। पदोंपर आसीन थे। विजयनगरके कई सेनापति भी उच्च साहित्यका निर्माण जो वहाँ होता था। अपनी मुसलमान थे। इन मुसलमान कर्मचारियोंने हमेशा ललित कलाओंके लिये भी वह प्रसिद्ध था।" मतसहिष्णुताका परिचय दिया–यहाँ तक कि उन्होंने सङ्गीतपुरमें उस समय महामण्डलेश्वर सालुवेन्द्र हिन्दू देवता और गुरुको दान भी दिये । किन्तु शासन कर रहे थे । वह सालुवेन्द्र नरेश जिनेन्द्र इतना होते हुए भी उन्होंने हिन्दुओंकी समुदार-वृत्ति- चन्द्रप्रभुके चरण-चश्चरीक बने हुए थे। उनका हृदय का अवसर मिलते ही दुरुपयोग किया ! कदाचित् रत्नत्रयधर्मके लिए सुदृढ़े मंजूषा था। उन्होंने सङ्गीतविजयनगर हिन्दू साम्राज्यके कतिपय सामन्तगण पुरमें अतीव उत्तुङ्ग और नयनाभिराम जिन चैत्यालय स्वार्थमें बहकर राजद्रोह न करते और विजयनगरकी बनवाये थे, जिनके विशाल मण्डप और सुन्दर मुसलमान सेना और सेनापति धोखा देकर मुसल- मानस्तम्भ बने हुए थे। धातु और पाषाणकी भव्य
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