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शोषण कर आर्थिक दृष्टिसे समाज में विषमता उत्पन्न करें । यद्यपि इतना सुनिश्चित है कि समस्त मनुष्यों में उन्नति करनेकी शक्ति एकसी न होनेके कारण समाज आर्थिक दृष्टि समानता स्थापित होना कठिन है, तो भी जैनधर्म समस्त मानव समाजको लौकिक उन्नति के समान अवसर एवं अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार उन्नति करने के लिये स्वतन्त्रता देता है । क्योंकि परिग्रहपरिमाण और भोगोपभोगपरिमाण का एक मात्र लक्ष्य समाजकी आर्थिक विषमताको दूर कर सुखी बनाना है । वस्तुतः अपरिग्रहवाद पूंजीवादका विरोधी सिद्धान्त है और यह समाजको समाजवादकी प्रणालीपर संगठित होनेके लिये प्रेरणा देता है । इसी लिये जैन ग्रन्थोंमें परिग्रहको महा - पाप बतलाया है, क्योंकि शोषणकर्त्ता हिंसा, झूठ, चोरी आदि सभी पापों को करने वाला ' 1
अनेकान्त
परिग्रहके दो भेद हैं- बाह्य परिग्रह और अन्तरङ्ग परिग्रह । बाह्य परिग्रह में धन, भूमि, अन्न, वस्त्र आदि बस्तुएँ परिगणित हैं । इनके सञ्चयसे समाजको आर्थिक विषमताजन्य कष्ट भोगना पड़ता है, अतः वश्यकता भर ही इन वस्तुओंको ग्रहण करना चाहिये, जिससे समाज के किसी भी सदस्यको कष्ट न हो और समस्त मानवसमाज सुखपूर्वक अपने जीवनको बिता सके ।
अन्तरङ्गपरिग्रहमें वे भावनाएँ शामिल हैं जिनसे धन-धान्यका संग्रह किया जाता है, दूसरे शब्दोंमें यों कह सकते हैं कि सञ्चयशील बुद्धिका नाम ही अन्तरङ्गपरिग्रह है । यदि बाह्य परिग्रह छोड़ भी दिया जाय और ममत्व बुद्धि बनी रहे तो समाजकी छीना१ तन्मूलाः सर्वदोषानुषगाः - स परिग्रहो मूल मेषां ते तन्मूलाः । के पुनस्ते सर्वदोषानुषंगाः, ममेदमिति हि सति संकल्पे रक्षणादयः संजायते । तत्र च हिंसावश्यं भाविनी तदर्थंमनृतं जल्पति चौर्य चाचरति मैथुने च कर्मणि प्रतियतते । - राजवार्तिक पृ० २७६ अविश्वासतमोनक्कं लोभानलघृताहुतिः । श्रारम्भमकराम्भोधिरहो श्रेयः परिग्रहः ॥
- सागारधर्मामृत ० ४ श्लो० ६३
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झपटी दूर नहीं हो सकती । इसलिये जैन मान्यताने अन्तरङ्ग, लोभ, माया, क्रोध आदि कषायोंके छोड़ने को विशेष महत्व दिया है । सारांशरूपमें अपरिग्रहकी स्पष्ट परिभाषा यों कही जा सकती है कि यह वह सिद्धान्त है जो पूंजी और जीवनोपयोगी अन्य आवश्यक वस्तुओंके अनुचित संग्रहको रोककर शोषणको बन्द करता है, जिससे मानवीय दशाओंकी भीषणता लुप्त होजाती है ।
पूंजी की प्राप्तिको ईश्वर की कृपा या भाग्यका फल एवं दरिद्रता - गरीबीको ईश्वर की कृपा या भाग्यका कुपरिणाम जैनधर्म में नहीं माना गया है। बल्कि जैन' कर्मसिद्धान्त में स्पष्टरूपसे कहा गया है कि साताकर्मके उदयसे परिणामोंमें शान्ति और असाता कर्मके उदयसे परिणामों में अशान्ति होती है । लक्ष्मीकी प्राप्ति किसी कर्मके उदयसे नहीं होती है, किन्तु सामाजिक व्यवस्था ही पूंजी के अर्जनमें कारण है। हाँ धनकी प्राप्ति, अप्राप्तिको साता, असाताके उदयमें नोकर्म-कर्मोदय में सहायक कारण माना जा सकता है । अतएव सामाजिक व्यवस्था में सुधार कर समाज के प्रत्येक सदस्यको उन्नतिके समान अव सर प्रदान करना प्रत्येक मानवका कर्त्तव्य है ।
संयमवाद—संसारमें सम्पत्ति एवं भोगोपभोग की सामग्री कम है, भोगने वाले ज्यादा हैं और तृष्णा भी अधिक है, इसीलिये प्राणियों में परस्पर संघर्ष और छीना-झपटी होती है, फलतः समाजमें नाना प्रकार के अत्याचार और अन्याय होते हैं जिससे अहर्निश समाजमें दुःख बढ़ता जाता है । परस्पर में ईर्षा, द्वेषकी मात्रा और भी अधिक है जिससे एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तिको उन्नतिका अवसर ही नहीं मिलने देता । इन सब बातोंका परिणाम यह होता है। कि समाज में संघर्षकी मात्रा बढ़कर विषमतारूपी जहर उत्पन्न होजाता है ।
१ देखें, श्री पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री द्वारा लिखित कर्मव्यवस्था शीर्षक निबन्ध, जो शीघ्र प्रकाशित हो रहा है।
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