________________
किरण ५]
जैनधर्म बनाम समाजवाद
१९१
अधर्मद्रव्य-यह अमूर्तिक पदार्थ स्थिर होने समाजमेंसे शोषित और शोषक वर्गकी समाप्ति कर वाले जीव और पुदलोंको स्थिर होने में सहायता आथिक दृष्टि से समाजको उन्नत स्तरपर लाते हैं। (Assists the staying of) करता है। उसका अहिंसा-प्रधान जैनधर्ममें समस्त प्राणियोंके साथ
अस्तित्व भी समस्त लोकमें पाया जाता है। मैत्रीभाव रखकर समाजके विकासपर जोर दिया • आकाशद्रव्य-जो सब द्रव्योंको अवकाश- है। मानवकी कोई भी क्रिया केवल अपने स्वार्थकी स्थान (space) देता है उसे आकाशद्रव्य कहते हैं। पूर्तिके लिये नहीं होनी चाहिये, बल्कि उसे समस्त इसके दो भेद हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश । समाजके स्वार्थको ध्यानमें रखकर अपनी प्रवृत्ति अनन्त आकाशके मध्यमें जहाँ तक जीव, पुद्गल, धर्म, करनी चाहिये । इसी कारण समस्त समाजको सुखी अधर्म पाये जायँ उसे लोकाकाश' (universe) बनानेके लिये व्यक्तिसे समाजको अधिक महत्व और जहाँ केवल आकाशद्रव्य ही हो उसे अलोका- दिया गया है तथा समाजकी इकाईके प्रत्येक घटकका काश (non-universe) कहते हैं।
दायित्व समानरूपमें बताया गया है। ___ कालद्रव्य-जिसके निमित्तसे वस्तुओंकी अव- अपरिग्रहवाद-अपने योगक्षेमके लायक भरणस्थाएँ बदलती हैं उसे कालद्रव्य कहते हैं। पोषणकी वस्तुओंको ग्रहण करना तथा परिश्रम कर
अभिप्राय यह है कि इन छः द्रव्यों (Subs- जीवन यापन करना, अन्याय और अत्याचार-द्वारा tences) में काम करने वाले (Actors) संसारी- पुञ्जीका अजेन न करना अपरिग्रह है। शास्त्रीय दृष्टिअशुद्ध जीव और पुदल हैं, ये चलना, ठहरना, से पूर्ण परिग्रहका त्याग तो साधु-अवस्थामें ही स्थान पाना एवं बदलना-परिवर्तन ये चार कार्य सम्भव है, किन्तु उपयुक्त परिभाषा गृहस्थ जीवनकी करते रहते हैं। उनके कार्यों में क्रमशः धर्मद्रव्य, दृष्टिसे दी गई है । जैन संस्कृतिमें परिग्रहपरिमाण 'के अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य निमित्त
साथ भोगोपभोगपरिमाणका भी कथन किया है। कारण (Auxiliary cause) अर्थात् सहायक होते
जिसका तात्पर्य यह है कि वस्त्र, आभरण, भोजन, हैं। इस प्रकार विश्वकी सारी व्यवस्था बिना किसी
ताम्बूल आदि भोगोपभोगकी वस्तुओंके सम्बन्धमें प्रधान शासक-ईश्वर कर्त्ताके सुचारुरूपसे बन
भी समाजकी परिस्थितिको देखकर उचित नियम जाती है । सभी द्रव्य अपने अपने विशेष गुणोंके
करना मानवमात्रके लिये आवश्यक है । उपर्युक्त कारण अपने-अपने कार्यको करते रहते हैं। इन दोनों व्रकि समन्वयका अभिप्राय यह है कि समस्त सांसारिक कार्योंमें जीव और पुद्गल उपादान कारण
मानव समाजकी श्राथिक अवस्थाको उन्नत बनाना। और अन्य द्रव्य निमित्त कारण होते हैं ।
चन्द लोगोंको इस बातका कोई अधिकार नहीं कि वे
१ वास्तु क्षेत्र धान्यं दासी दासश्चतुष्पद भाण्डम् । - आर्थिक दृष्टिकोण .
परिमेयं कर्त्तव्यं सर्व सन्तोषकुशलेन ॥ आर्थिक दृष्टिसे समाजको समान स्तरपर लाना
-अमितगतिश्रावकाचार पृष्ठ १६२ जैनधर्मका एक विशिष्ट सिद्धान्त है। जैन संस्कृतिके
ममेदमिति संकल्पश्चिदचिन्मिश्रवस्तुष । प्रधान अङ्ग अपरिग्रह और संयमवाद ये दोनों ही
ग्रन्थस्तत्कर्शनात्तेषां कर्शनं तत्प्रमाव्रतम् ॥ १ धम्माधम्मा कालो पुग्गलजीवा य संति जावदिये।
-सा० ध० अ०४, श्लोक ५९ श्रायासे सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्तो ॥ २ तांबूलगन्धलेपनमजनभोजनपुरोगमो भोगः ।
-द्रव्यसंग्रह गा०२० उपभोगो भषास्त्रीशयनासनवस्त्रवाहाद्याः ॥ लोकतीति लोक:-लोकति पश्यत्युपलभते अर्थानिति भोगोपभोगसंख्या विधीयते शक्तितो भक्तथा। लोकः । -तत्त्वार्थ राजवार्त्तिक ५। १२
अमितगतिश्रावकाचार पृ० १६८
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org