Book Title: Anekant 1948 05
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

View full book text
Previous | Next

Page 21
________________ किरण ५ ] नित्योद्योत विशद - ज्ञानज्योति स्वरूप हूँ। मैं एक हूँ। पर - पदार्थ से मेरा क्या सम्बन्ध ? अणुमात्र भी परद्रव्य मेरा नहीं है। हमारे ज्ञानमें ज्ञेय आता है पर वह भी मुझसे भिन्न है । मैं रसको जानता हूँ पर रस मेरा नहीं हो जाता। मैं नव पदार्थों को जानता हूँ पर नव पदार्थ मेरे नहीं हो जाते। भगवान् कुन्दकुन्द - स्वामी ने लिखा है त्यागका वास्तविक रूप "अट्टमिको खलुं सुद्धो दंसण-गाणमइओ सदाऽरूवी । वि अस्थिमज्झ किंचि वि अरणं परमाणुमित्तं पि ॥" मैं एक हूं, शुद्ध हूं, दर्शन - ज्ञानमय हूं, अरूपी हूं । अधिककी बात जाने दो परमाणुमात्र भी परद्रव्य मेरा नहीं है। * पर बात यह है कि हम लोगोंने तिलीका तेल खाया है, घी नहीं । इसलिये उसे ही सब कुछ समझ रहे हैं। कहा है- 'तिलतैलमेव मिष्टं येन न दृष्टं घृतं कापि । श्रविदितपरमानन्दो जनो वदति विषय एव रमणीयः ।।' जिसने वास्तविक सुखका अनुभव नहीं किया वह विषयसुखको ही रमणीय कहता है। इस जीवकी हालत उस मनुष्यके समान होरही है जो सुवर्ण रखे तो अपनी मुट्ठी में है पर खोजता फिरता है | अन्यत्र कहाँ धरा ? आत्माकी चीज आत्मामें ही मिल सकती है । एक भद्रप्राणी था । उसे धर्मकी इच्छा हुई। मुनिराजके पास पहुँचा, मुझे धर्म चाहिए । मुनिराजने कहा- भैया ! मुझे और बहुतसा काम करना है । अतः अवसर नहीं । इस पासकी नदीमें चले जाओ उसमें एक नाकू रहता है । मैंने उसे अभी अभी धर्म दिया है वह तुम्हें दे देगा। भद्रप्राणी नाकूके पास जाकर कहता है कि मुनिराजने धर्मके अर्थ मुझे आपके पास भेजा है, धर्म दीजिये । नाकू बोला, अभी लो, एक मिनिटमें लो, पर पहले एक काम मेरा कर दो। मैं बड़ा प्यासा हूँ, यह सामने किनारेपर एक कुा है उससे लोटा भर पानी लाकर मुझे पिला दो, फिर मैं आपको धर्म देता हूँ । भद्रप्राणी कहता हैतू बड़ा मूर्ख मालूम होता है, चौबीस घण्टे तो पानी - Jain Education International १८५ में बैठा है और कहता है कि मैं प्यासा हूं । नाकूने कहा कि भद्र ! जरा अपनी ओर भी देखो। तुम भी चौबीसों घण्टे धर्ममें बैठे हो, इधर-उधर धर्मकी खोजमें क्यों फिर रहे हो ? धर्म तो तुम्हारा आत्माका स्वभाव है, वह अन्यत्र कहाँ मिलेगा । सम्यग्दृष्टि सोचता है जिस कालमें जो बात होने वाली होती है उसे कौन टाल सकता है ? भगवान् आदिनाथको ६ माह श्रहार नहीं मिला । पाण्डवोंको अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान होने वाला था, ज्ञानकल्याण का उत्सव करनेके लिये देवलोग आने वाले थे । पर इधर उन्हें तप्त लोहेके जिरह वख्तर पहिनाये जाते हैं। देव कुछ समय पहले और आजाते ! आ कैसे जाते ? होना तो वही था जो हुआ था । यही सोच कर सम्यग्दृष्टि न इस लोकसे डरता है, न परलोकसे । न उसे इस बात का भय होता है कि मेरी रक्षा करने वाले गढ़, कोट आदि कुछ भी नहीं है । मैं कैसे रहूंगा ? न उसे आकस्मिक भय होता है और सबसे बड़ा मरणका भय होता है सो सम्यग्दृष्टिको वह भी नहीं होता वह अपनेको सदा 'अनाद्यनन्तनित्योद्योतविशदज्ञानज्योति' स्वरूप मानता है । सम्यग्दृष्टि जीव संसारसे उदासीन होकर रहता है । तुलसीदासने एक दोहे में कहा है 'जगतै रहु छत्तीस हो रामचरण छह तीन ।' संसारसे ३६के समान विमुख रहो और रामचन्द्र जीके चरणों में ६३के समान सम्मुख | वास्तवमें वस्तुतत्त्व यही है कि सम्यग्दृष्टिकी आत्मा बड़ी पवित्र होजाती है, उसका श्रद्धान गुण बड़ा प्रबल हो जाता है । यदि श्रद्धान न होता तो आपके गाँव में जो २८ उपवास वाला बैठा है वह कहाँसे आता ? इस लड़कीके (काशीबाईकी श्रोर संकेत करके) आज आठवाँ उपवास है । नत्था कहीं बैठा होगा उसके बारहवाँ उपवास है और एक-एक, दो-दो उपवासवालों की तो गिनती ही क्या है ? 'अलमा कौन पियादों में' ? वे तो सौ, दो-सौ होंगे । यदि धर्मका श्रद्धान न होता तो इतना क्लेश फौकट में कौन सहता ? For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50