Book Title: Anekant 1948 05
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 19
________________ त्यागका कास्तविक रूप [परिशिष्ट] (प्रवक्ता पूज्य श्रीतुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य) ताज अकिञ्चन्य धर्म है, पर दो द्वादशी होजानेसे बड़ी बात पूछी, उसमें क्या है ? वही तो अयोध्या है " आज भी त्याग धर्म माना जायगा । त्याग- जिसमें रामचन्द्रजी पैदा हुए थे। अच्छा, बालकाण्डका स्वरूप कल आप लोगोंने अच्छी तरह सुना था। में क्या है ? खूब रही, इतने काण्ड हमने बतलाये, आज उसके अनुसार कुछ काम करके दिखलाना है। एक काण्ड तुम्हीं बतला दो। सभी काण्ड हम ही से __मूर्छाका त्याग करना त्याग कहलाता है। जो पूछना चाहते हो। इसी प्रकार हमारा भी कहना है चीज आपकी नहीं है उसे आप क्या छोडेंगे? वह कि इतने धर्म तो हमने बतला दिये । अब एक त्याग तो छूटी ही है। रुपया, पैसा, धन, दौलत सब आपसे धर्म तुम्हीं बतला दो। और हमसे जो कुछ कहो सो जुदे हैं। इनका त्याग तो है ही। आप इनमें मुर्छा हम त्याग करनेको तैयार हैं-कहो तो चले जायें । छोड़ दो, लोभ छोड़ दो; क्योंकि मूर्छा और लोभ (हँसी)। आपके त्यागसे हमारा लाभ नहीं-आपका नो आपका है-आपकी आत्माका विभाव है । धनका लाभ है। आपकी समाजका लाभ है, आपके राष्ट्रका त्याग लोभकषायके अभावमें होता है । लोभका लाभ है । हमारा क्या है ? हमें तो दिनमें दो रोटियाँ अभाव होनेसे आत्मामें निर्मलता आती है। यदि चाहिएँ, सो आप न दोगे, दूसरे गाँववाले दे देंगे। कोई लोभका त्यागकर मान करने लग जाय-दान आप लुटिया न उठाओगे तो (चुल्लकजीके हाथसे करके अहङ्कार करने लग जाय तो वह मान, कषायका पीछी हाथमें लेकर) यह पीछी और कमण्डलु उठाकर दादा हो गया। 'चूल्हेसे निकले भाडमें गिरे जैसी स्वयं बिना बुलाये आपके यहाँ पहुँच जाऊँगा। पर कहावत होगई। सो यदि एक कषायसे बचते हो तो अपना सोच लो । आज परिग्रहके कारण सबकी उससे प्रबल दूसरी काय मत करो। आत्मा (हाथका इशारा कर) यों काँप रही है। रातदेखें, आप लोगोंमेंसे कोई त्याग करता है या दिन चिन्तित हैं-कोई न ले जाय । कँपने में क्या नहीं। मैं तो आठ दिनसे परिचय कर रहा हूँ । आज धरा? रक्षाके लिये तैयार रहो। शक्ति सश्चित करो।। दूसरेका मुँह क्या ताकते हो ? या अटूट श्रद्धान तुम भी कर लो । इतना काम तुम्ही कर लो। रक्खो जिस कालमें जो बात जैसी होने वाली है वह ____एक आदमीसे एकने पूछा--श्राप रामायण उस कालमें वैसी होकर रहेगी। जानते हो तो बताओ उत्तरकाण्डमें क्या है ? उसने कहा-अरे, उत्तरकाण्डमें क्या धरा ? कुछ ज्ञान 'यदभावि न तद्भावि भावि चेन्न तदन्यथा । ध्यानकी बातें हैं। अच्छा, अरण्यकाण्डमें क्या है ? नग्नत्वं नीलकण्ठस्य महाहिशयनं हरेः ।।' उसमें क्या धरा ? अरण्य वनको कहते हैं, उसीकी यह नीति बच्चोंको हितोपदेशमें पढ़ाई जाती है। कुछ बातें हैं। लङ्काकाण्डमें क्या है ? अरे, लङ्काको जो काम होने वाला नहीं वह नहीं होगा और जो कौन नहीं जानता ? वही तो लङ्का है जिसमें रावण होने वाला है वह अन्यथा प्रकार नहीं होगा । रहा करता था। भैया! अयोध्याकाण्डमें क्या है ? महादेवजी तो दुनियाके स्वामी थे, पर उन्हें एक वस्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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