Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Mehta Mohanlal Damodar
Publisher: Mehta Mohanlal Damodar

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Page 291
________________ ००००० 18| एविंदियथ्थाय मणस्स अथ्था दुश्वरस हेउं मणयस्त रागिणी। ते चेव थोबपि कयाइ दुवंन वीयरागरसकरेति किचि॥१०॥ उ.अ. ३२ न कामभोगा समयं उति नया वि भोगा विगई उति । जे तप्पओसीय परिंगहीय सो तेसु मोहाविगई उवेड। २८५/३॥ १०१ ॥ कोहंच माणंच तहेब मायं लोभं दुगंछ अरइं रइंच । हासं भयं सोग पुमिथिथवेयं नपुसं वेयं विविहेय 18 भावे ॥१०२॥ आवज्जई एव मणे गरूवे एवं विहे कामगुणेसु सत्तो । अन्नेय एयप्पभवे विसेसे कारुन्न दीणे हरिमे | वइस्से ॥ १०३ ॥ कप्पं न इलेज सहायलिछु पड्डाणुतावेय तव प्पभावं । एवं वियारे अभिय प्पयारे आवज्जई इंदिय चोर वस्से ।।१०४ ॥ ___आ प्रमाण इन्द्रिय अने मनना संकल्प-विकल्पो रागातुर मनुष्यने दुःख उपजावे छे. परंतु तेश्रो राग द्वेष रहित वीतराग जीतेन्द्रिय ] ने लेश मात्र दुःख उपजाची शक्ता नथी. [१००]. काम भोगनी वस्तुओ पोते समता अथवा विकार उत्पन्न करती नथी, परंतु तेमना प्रति राग द्वेष आणवाथी मायाने लीधे एवा विकार उत्पन्न थाय छे.[१०]. क्रोध, मान, माया, लोभ, दुगंछा,अरवि, रति, हर्ष, भय, शोक स्त्री वेद, पुरुष वेद, अने नपुंसक वेद* प्रति विषयनी अभिलाषा; आवा विविध प्रकारना भाव विषयासक्त मनुष्यना हृदयमा उत्पन थाय छे. तेमन वळी उपर कहेला क्रोधादिकने लीधे अन्य विकारो पेदा थाय छे. एवो मनुष्य दयाने पात्र लज्जित अने सर्वत्र अप्रीतिकर थइ पढे छे. [१०२.१०३], आ चार स्वाध्यायमां शीथील थइ, साधुए शिष्यनी इच्छा करवी नहि चारित्र लीधा पछी तप वीगरे माटे खेद न करवो तेम पोताना तपना प्रभावनी साधुए इच्छा करवी नही. एवा अनेक प्रकारना विकारो तो इन्द्रियोने वश थयेलामा उद्भव छे. [१०४]. *वार कषाय अने नव नोकपाय. Such emotions of an infinite variety arise in one who is the slave of his senses. 500००००००००००००००० 40000-00००००० Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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