Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Mehta Mohanlal Damodar
Publisher: Mehta Mohanlal Damodar

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Page 336
________________ उ. अ. ३६ ३३० चउप्पयाय परिसप्पा दुविहा थलयरा भवे । चउप्पया चउब्विहा ओतेमेकित्तयओसुण ॥ १८० ॥ एगखुरादुख्खुराचैव गंडीपय सनप्पया । हयमाईगोणमाई गयमाई सीहमाइणो ॥ १८१ ॥ भु उरग परिसप्पा परिसप्पा दुविहा भवे । गोहाई अहिमाईया एक्केक्का णेगहा भवे ॥१८२॥ लोएग देसे तेसव्वे न सव्वथ्य वियाहिया । इत्तो काल विभा गंतु तेसिं वोद्धुं चउब्विहं ॥१८३॥ संतई पप्पणाईया अपज्जव सियाविय ठिई पडुच्च साईया सज्जवसिय वि ॥ १८४॥ पलिओ वमाओ तिन्निओ उक्कोसेण वियाहिया । आउ ठिई थलयराणं अंतोमुहुतं जहन्निया ॥१८५॥ पलिओवमाओ तिन्निओ उक्कोसेणंतु साहिया । पुव्वकोडी पुहुत्तेणं अंतमुहुत्तं जहन्निया ॥ १८६॥ कायठिई थलयराणं अंतरं तेसिमं भवे । अनंत काल मुक्कासं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ॥ १८७॥ } स्थळवर जीवना वे प्रकार छे:-चोपगां अने पेटे चालनारां. चोपगांना चार भेद छे ते तमने कहुं हुं ते सांभळोः - (१८०). एक खरीवाळां (घोडा वगेरे), वे खरीचाळां (गाय वगेरे), गंडी पदा (हाथी वगेरे) अने सनखपदा एटले नोरवाळां (सिंह वगेरे ). (१८१). पेटे चालनारां जीवना वे प्रकार छे:-भुजा उपर चलना जेवांके अंदर वगेरे, अने पेढे चालनारां जेवांके सर्प वगेरे, ए बन्नेना वळी अनेक भेद छे. [१८२]. स्थळचर जीव लोकना एक देशने विषे व्याप्त छे, तेओ आखा लोकने विषे व्याप्त नथी. हवे हुं तेना चार प्रकारे काळ विभाग कहुं छं. [१८३] प्रवाह रुपे जोइए तो स्थळचर जीव आदि अने अंत रहित छे, परंतु हाल ते जे रुपे छे ते रुपे जोइए तो ते आदि अने अंत सहित छे. [१८४]. स्थळचर जीवनी उत्कृष्ट स्थिति त्रण पल्योपमनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहूर्त्तनी छे. [१८५ ]. स्थळचर जीव स्थळचर कायथी न मुकाय तो तेनी उत्कृष्ट स्थिति त्रण पल्योपम उपर पृथक पूर्व कोटि वर्षनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहूर्त्तनी छे. (१८६). स्थळचर जीव स्थळचर कायथी चवीने उत्पन्न थाय तेनो उत्कृष्ट आंतरो अनंत काळनो अने जघन्य आंतरो अंत मुहूर्त्तनो छे. [१८७ ]. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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