Book Title: Agam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Author(s): Aryarakshit, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
अनुयोगद्वारसूत्र
[ ४७५ प्र.] भगवन् ! जिसके द्वारा नयों का स्वरूप जाना जाता है वह वसति दृष्टान्त क्या है ? [४७५ उ.] आयुष्मन्! वसति के दृष्टान्त द्वारा नयों का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिए— जैसे किसी पुरुष किसी अन्य पुरुष से पूछा- आप कहां रहते हैं ?
तब उसने अविशुद्ध नैगमनय के मतानुसार उत्तर दिया- मैं लोक में रहता हूं ।
प्रश्नकर्त्ता ने पुन: पूछा— लोक के तो तीन भेद हैं—ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तिर्यग्लोक। तो क्या आप इन सब में रहते हैं ? तब-
३७०
विशुद्ध नैगमनय के अभिप्रायानुसार उसने कहा- मैं तिर्यग्लोक में रहता हूं ।
इस पर प्रश्नकर्त्ता ने पुनः प्रश्न किया — तिर्यग्लोक में जम्बूद्वीप आदि स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त असंख्यात द्वीप - समुद्र हैं, तो क्या आप उन सभी में रहते हैं ?
प्रत्युत्तर में विशुद्धतर नैगमनय के अभिप्रायानुसार उसने कहा मैं जम्बूद्वीप में रहता हूं ।
तब प्रश्नकर्त्ता ने प्रश्न किया— जम्बूद्वीप में दस क्षेत्र हैं। यथा— भरत, ऐरवत, हैमवत, ऐरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, देवकुरु, उत्तरकुरु, पूर्वविदेह, अपरविदेह । तो क्या आप इन दसों क्षेत्रों में रहते हैं ?
उत्तर में विशुद्धतर नैगमनय के अभिप्रायानुसार उसने कहा— भरतक्षेत्र में रहता हूं ।
प्रश्नकर्त्ता ने पुन: प्रश्न पूछा— भरतक्षेत्र के दो विभाग हैं— दक्षिणार्ध भरत और उत्तरार्धभरत। तो क्या आप उन दोनों विभागों में रहते हैं ?
विशुद्धतर नैगमनय की दृष्टि से उसने उत्तर दिया – दक्षिणार्ध भरत में रहता हूं ।
प्रश्नकर्त्ता ने पुनः प्रश्न पूछा— दक्षिणार्धभरत में तो अनेक ग्राम, नगर, खेड, कर्वट, मडंब, द्रोणमुख, प्रट्टन, आकर, संवाह, सन्निवेश हैं, तो क्या आप उन सबमें रहते हैं ?
इसका विशुद्धतर नैगमनयानुसार उसने उत्तर दिया – मैं पाटलिपुत्र में रहता हूं।
प्रश्नकर्त्ता ने पुन: पूछा—पाटलिपुत्र में अनेक घर हैं, तो आप उन सभी में निवास करते हैं ?
तब विशुद्धतर नैगमनय की दृष्टि से उसने उत्तर दिया — देवदत्त के घर में बसता हूं । प्रश्नकर्त्ता ने पुन: पूछा— देवदत्त के घर में अनेक प्रकोष्ठ — कोठे हैं, तो क्या आप उन सबमें रहते हैं ? उत्तर में उसने विशुद्धतर नैगमनय के अनुसार कहा— (नहीं, मैं उन सबमें तो नहीं रहता, किन्तु) गर्भगृह में
रहता हूं ।
इस प्रकार विशुद्ध नैगमनय के मत से वसते हुए को वसता हुआ माना जाता है। अर्थात् विशुद्ध नैगमनय के मतानुसार गर्भगृह में रहता हुआ ही 'वसति' इस रूप से व्यपदिष्ट होता है।
व्यवहारनय का मंतव्य भी इसी प्रकार का है।
संग्रहनय के मतानुसार शैया पर आरूढ़ हो तभी वह वसता हुआ कहा जा सकता है।
ऋजुसूत्रनय के मत से जिन आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ - अवगाहनयुक्त - विद्यमान है, उनमें ही वसता हुआ माना जाता है।
तीनों शब्दनयों के अभिप्राय से आत्मभाव स्वभाव में ही निवास होता है।
इस प्रकार वसति के दृष्टान्त द्वारा नयों का स्वरूप जानना चाहिए।

Page Navigation
1 ... 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553