Book Title: Agam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Author(s): Aryarakshit, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 465
________________ ४१४ अनुयोगद्वारसूत्र विवेचन— क्रोध कषाय आदि जीव के वैभाविक भावों के तथा ज्ञानादि स्वाभाविक भावों के समवतार को भावसमवतार कहते हैं। इसके भी आत्मसमवतार और तदुभयसमवतार ये दो प्रकार हैं। सूत्र में क्रोधादिक के दोनों प्रकार के समवतार का संक्षेप में उल्लेख किया है। उसका आशय यह है—क्रोधादि औदयिकभाव रूप होने से उनका भावसमवतार में ग्रहण किया है, अहंकार के बिना क्रोध उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए उभयसमवतार की अपेक्षा क्रोध का मान में और अपने निजरूप में समवतार कहा है। क्षपकश्रेणी में आरूह जीव जिस समय मान का क्षय करने के लिए प्रवृत्त होता है उस समय वह मान के दलिकों को माया में प्रक्षिप्त करके क्षय करता है, इस कारण उभयसमवतार की अपेक्षा मान का माया में और निजरूप में भी और आत्मसमवतार की अपेक्षा अपने निजरूप में ही समवतार बताया है। इसी प्रकार माया, लोभ, राग, मोहनीयकर्म, अष्टकर्मप्रकृति आदि जीवपर्यन्त का उभयसमवतार एवं आत्मसमवतार समझ लेना चाहिए। यद्यपि उपक्रमद्वार में शास्त्रकार को सामायिक आदि षडावश्यक-अध्ययनों का समवतार करना अभीष्ट है, किन्तु सुगम होने के कारण यहां उसका सूत्र में वर्णन नहीं किया है। वह इस प्रकार है सामायिक, उत्कीर्तन का विषय होने से सामायिक का उत्कीर्तनानुपूर्वी में समवतार होता है तथा गणनानुपूर्वी में जब पूर्वानुपूर्वी से इसकी गणना की जाती है तब प्रथम स्थान पर और पश्चानुपूर्वी से गणना किए जाने पर छठे स्थान पर आता है तथा अनानपूर्वी से गणना किये जाने पर यह दूसरे आदि स्थानों पर आता है, अत: इसका स्थान अनियत है। ___ नाम में औदायिक आदि छह भावों का समवतार होता है। इसमें सामायिक अध्ययन श्रुतज्ञान रूप होने से क्षायोपशमिकभाव में समवतरित होता है। प्रमाण की अपेक्षा जीव का भाव रूप होने से सामायिक अध्ययन का भावप्रमाण में समवतार होता है। भावप्रमाण गुण, नय और संख्या, इस तरह तीन प्रकार का है। इन भेदों में से सामायिक अध्ययन का समवतार गुणप्रमाण और संख्याप्रमाण में होता है । यद्यपि कहीं-कहीं नयप्रमाण में भी इसका समवतार कहा गया है, तथापि तथाविध नय के विचार की विवक्षा नहीं होने से नयप्रमाण में इसका समवतार नहीं कहा है। जीव और अजीव के गुणों के भेद से गुणप्रमाण दो प्रकार का है। सामायिक जीव का उपयोग रूप होने से इसका समवतार जीवगुणप्रमाण में जानना चाहिए तथा जीवगुणप्रमाण भी ज्ञान, दर्शन और चारित्र के भेद से तीन प्रकार का है। सामायिक ज्ञान रूप होने से इसका समवतार ज्ञानप्रमाण में होता है। ज्ञानप्रमाण भी प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान के भेद से चार प्रकार का है। सामायिक आप्तोपदेश रूप होने के कारण से इसका आगमप्रमाण में अन्तर्भाव होता है। किन्तु आगम भी लौकिक और लोकोत्तर के भेद से दो प्रकार का है। तीर्थंकरप्रणीत होने से सामायिक का लोकोत्तर-आगम में समवतार होता है। लोकोत्तर-आगम भी आत्मागम, अनन्तरागम और परंपरागम के भेद से तीन प्रकार का है। इन तीनों प्रकार के आगमों में सामायिक का समवतार जानना चाहिए। संख्याप्रमाण नाम, स्थापना, द्रव्य, औपम्य, परिमाण, ज्ञान, गणना और भाव के भेद से आठ प्रकार का है। इन आठ प्रकारों में से सामायिक का अन्तर्भाव पांचवें परिमाणसंख्याप्रमाण में हुआ है। वक्तव्यता तीन या दो तरह की कही गई है। इनमें से सामायिक का समवतार स्वसमयवक्तव्यता में जानना

Loading...

Page Navigation
1 ... 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553