Book Title: Agam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Author(s): Aryarakshit, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 492
________________ सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति निरूपण ४४१ अलीकदोष हैं। २. उपघातजनक- जीवों के घात का प्ररूपक, जैसे वेद में वर्णन की गई हिंसा धर्मरूप है। ३. निरर्थकवचन-जिन अक्षरों का अनुक्रमपूर्वक उच्चारण तो मालूम हो, लेकिन अर्थ कुछ भी सिद्ध नहीं हो। जैसे अ, आ, इ, ई, उ, ऊ इत्यादि अथवा डित्थ डवित्थ आदि। ४. अपार्थकदोष- असंबद्ध अर्थवाचक शब्दों का बोलना। जैसे—दस दाडिम, छह अपूप, कुण्ड में बकरा आदि। - ५. छलदोष- ऐसे पद का प्रयोग करना जिसका अनिष्ट अर्थ हो सके और विवक्षितार्थ का उपघात हो जाये। जैसे 'नवकम्बलोऽयं देवदत्त इति'। यहां 'नव' शब्द का अर्थ नूतन है, किन्तु 'नौ' अर्थ भी हो सकता है। ६. द्रुहिलदोष- पाप व्यापारपोषक। ७. निस्सारवचनदोष— युक्ति से रहित वचन। ८. अधिकदोष- जिसमें अक्षर-पदादि अधिक हों। जैसे अनित्यः शब्दः कृतकत्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वाभ्यां घटपटवत् । यहां एक साध्य की सिद्धि के लिए कृतकत्व और प्रयत्नानन्तरीयकत्व यह दो हेतु और घट पट दो दृष्टान्त दिये गये हैं। एक साध्य की सिद्धि में एक ही हेतु और एक ही दृष्टान्त पर्याय है। इसलिए अधिक दोष है। ९. ऊनदोष-(न्यूनवचन)—जिसमें अक्षरपदादि हीन हों अथवा हेतु या दृष्टान्त की न्यूनता हो। जैसे— अनित्यः शब्दः घटवत् तथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् । १०. पुनरुक्तदोष- पुनरुक्तदोष के दो भेद हैं—एक शब्द से और द्वितीय अर्थ से। शब्द से पुनरुक्त- जो शब्द एक बार उच्चारण किया गया हो, फिर उसी का उच्चारण करना, जैसे—घटो घटः। अर्थ से पुनरुक्त. जैसेघट, कुट, कुंभ। ११. व्याहतदोष- जहां पूर्ववचन से उत्तरवचन का व्याघात हो। जैसे कर्म चास्ति फलं चास्ति कर्ता नत्वस्ति कर्मणामित्यादि—कर्म है और उसका फल भी होता है किन्तु कर्मों का कर्ता कोई नहीं है।' १२. अयुक्तदोष-- जो वचन युक्ति, उपपत्ति को सहन न कर सके। जैसे हाथियों के गण्डस्थल से मद का ऐसा प्रवाह बहा कि उसमें चतुरंगी सेना बह गई। १३. क्रमभिन्नदोष- जिसमें अनुक्रम न हो, जो उलट-पुलट कर बोला जाये, जैसे स्पर्श, रस, गंध, रूप, शब्द के स्थान पर स्पर्श, रूप, शब्द, रस, गंध इस प्रकार क्रमभंग करके बोलना। १४. वचनभिन्नदोष— जहां वचन की विपरीतता हो। जैसे वृक्षाः ऋतौ पुष्पितः । यहां 'वृक्षाः' बहुवचन का पद है और 'पुष्पितः' एकवचन है। १५. विभक्तिभिन्नदोष— विभक्ति की विपरीतता-व्यत्यय होना। जैसे 'वृक्षं पश्य' के स्थान पर 'वृक्षः पश्य' ऐसा कहना। यहां द्वितीया विभक्ति के स्थान पर प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया गया है। १६. लिंगदोष- लिंग का विपरीत होना । जैसे—अयं स्त्री। इसमें 'अयं' शब्द पुल्लिग है और 'स्त्री' शब्द स्त्रीलिंग का है। १७. अनभिहितदोष- स्वसिद्धान्त में जो पदार्थ ग्रहण नहीं किये गये, उनका उपदेश करना । जैसे सांख्यदर्शन में प्रकृति और पुरुष से अतिरिक्त तीसरा तत्त्व कहना।। १८. अपदोष- अन्य छन्द के स्थान पर दूसरे छन्द का उच्चारण करना जैसे—आर्या पद के बदले वैतालीय

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