Book Title: Agam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Author(s): Aryarakshit, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 496
________________ नय निरूपण ४४५ नैगम आदि सात नयों के लक्षण ___ जो अनेक मानों (प्रकारों) से वस्तु के स्वरूप को जानता है, अनेक भावों से वस्तु का निर्णय करता है (वह नैगमनय है) यह नैगमनय की निरुक्ति–व्युत्पत्ति है। शेष्ज्ञ नयों के लक्षण कहूंगा, जिनको तुम सुनो। १३६ सम्यक् प्रकार से गृहीत—एक जाति को प्राप्त अर्थ जिसका विषय है, यह संग्रहनय का वचन है। इस प्रकार से (तीर्थंकर, गणधर आदि ने संक्षेप में) कहा है। व्यवहारनय सर्व द्रव्यों के विषय में विनिश्चय (विशेष-भेद रूप में निश्चय) करने के निमित्त प्रवृत्त होता है। १३७ ऋजुसूत्रनयविधि प्रत्युत्पन्नग्राही (वर्तमानकालभावी पर्याय को ग्रहण करने वाली) जानना चाहिए। शब्दनय (ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा सूक्ष्मतर विषय वाला होने से) पदार्थ को विशेषतर मानता है। १३८ समभिरूढनय वस्तु का अन्यत्र संक्रमण अवस्तु (अवास्तविक) मानता है। एवंभूतनय व्यंजन (शब्द) अर्थ एवं तदुभय को विशेष रूप से स्थापित करता है। १३९ विवेचन- उल्लिखित चार गाथाओं में नैगमादि सात नयों के लक्षण संक्षेप में बताये हैं। स्पष्टीकरण इस प्रकार है १. नैगमनय— जो महासत्ता (परसामान्य) अपरसामान्य एवं विशेष के द्वारा वस्तु का परिच्छेद करता है, वह नैगमनय है। अथवा निगम का अर्थ है वसति। अतएव 'लोके वसामि' (लोक में रहता हूं) इत्यादि पूर्वोक्त कथन का नाम निगम है और इन निगमों से सम्बद्ध नय को नैगमनय कहते हैं । अथवा अर्थ के ज्ञान को निगम कहते हैं। अतएव अनेक प्रकार से जो अर्थ के ज्ञान को मान्य करे वह नैगमनय कहलाता है। अथवा जिसके वस्तुविचार के अनेक गम-प्रकार हों उसे नैगमनय कहते हैं। अथवा पूर्वोक्त प्रस्थक आदि दृष्टान्त रूप संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला नय नैगमनय है। यह नय भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालों सम्बन्धी पदार्थ को ग्रहण करता है। इस नय के मत से भूत आदि तीनों कालों का अस्तित्व है। २.संग्रहनय- सामान्य रूप से सभी पदार्थों का संग्रह करने वाले नय को संग्रहनय कहते हैं। यह नय सब वस्तुओं को सामान्यधर्मात्मक मान्य करता है, क्योंकि विशेष सामान्य से पृथक् नहीं है। ३. व्यवहारनय- इसका दृष्टिकोण संग्रहनय से विपरीत है। अर्थात् यह सामान्य का अभाव सिद्ध करने वाला है। क्योंकि लोकव्यवहार में विशेषों से व्यतिरिक्त सामान्य का अस्तित्व सिद्ध नहीं होने तथा उसके अनुपयोगी होने के कारण व्यवहारनय सामान्य को स्वीकार नहीं करता। ४. ऋजुसूत्रनय— इसमें ऋजु और सूत्र यह दो शब्द हैं। इनमें से ऋजु का अर्थ प्रगुण-कुटिलतारहितसरल है। अतएव ऐसे सरल को जो सूत्रित करता है—स्वीकार करता है उस नय को ऋजुसूत्रनय कहते हैं। अथवा जो नय अतीत और अनागत कालवर्ती पदार्थों को ग्रहण न करके वर्तमानकालिक पदार्थों को ही ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है। उक्त दोनों लक्षणों का समन्वित आशय यह हुआ कि अतीत और अनागत ये दोनों अवस्थाएं क्रमशः विनष्ट और अनुत्पन्न होने के कारण असत् हैं और ऐसे असत् को स्वीकार करना कुटिलता है। इस कुटिलता का

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