Book Title: Agam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Author(s): Aryarakshit, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 479
________________ ४२८ अनुयोगद्वारसूत्र ५८५. से किं तं जाणयसरीरदव्वझवणा ? जाणयसरीरदव्वज्झवणा झवणापयत्थाहिकार-जाणयस्स जं सरीरयं ववगय-चुय-चइयचत्तदेहं, सेसं जहा दव्वज्झयणे, जाव य से तं जाणयसरीरदव्वझवणा । [५८५ प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीरद्रव्यक्षपणा का क्या स्वरूप है ? [५८५ उ.] आयुष्मन् ! क्षपणा पद के अर्थाधिकार के ज्ञाता का व्यपगत, च्युत, च्यावित, त्यक्त शरीर इत्यादि सर्व वर्णन द्रव्याध्ययन के समान जानना चाहिए। यह ज्ञायकशरीरद्रव्यक्षपणा का स्वरूप है। ५८६. से किं तं भवियसरीरदव्वझवणा ? भवियसरीरदव्वझवणा जे जीवे जोणीजम्मणणिक्खंते आयत्तएणं० जिणदिवेणं भावेणं ज्झवणा त्ति पयं सेयकाले सिक्खिस्सति, ण ताव सिक्खइ, को दिर्सेतो ? जहा अयं घयकुंभे भविस्सति, अयं महुकुंभे भविस्सति । से तं भवियसरीरदव्वझवणा । [५८६ प्र.] भगवन् ! भव्यशरीरद्रव्यक्षपणा किसे कहते हैं ? [५८६ उ.] आयुष्मन् ! समय पूर्ण होने पर जो जीव उत्पन्न हुआ और प्राप्त शरीर से जिनोपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य में क्षपणा पद को सीखेगा, किन्तु अभी नही सीख रहा है, ऐसा वह शरीर भव्यशरीरद्रव्यक्षपणा है। [प्र.] इसके लिए दृष्टान्त क्या है ? [उ.] जैसे किसी घड़े में अभी घी अथवा मधु नहीं भरा गया है, किन्तु भविष्य में भरे जाने की अपेक्षा अभी से यह घी का घड़ा होगा, यह मधुकलश होगा, ऐसा कहना।। ५८७. से किं तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वझवणा ? जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वज्झवणा जहा जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वाए तहा भाणियव्वा, जाव से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वज्झवणा । से तं नोआगमओ दव्वझवणा । से तं दव्वज्झवणा ।। [५८७ प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यक्षपणा का क्या स्वरूप है ? [५८७ उ.] आयुष्मन् ! ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यक्षपणा का स्वरूप ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-आय के समान जानना चाहिए। इस प्रकार से नोआगमद्रव्यक्षपणा और साथ ही द्रव्यक्षपणा का वर्णन पूर्ण हुआ। विवेचनयहां सूत्र ५८१ से ५८७ तक में अध्ययन के अतिदेश द्वारा नाम, स्थापना और द्रव्यक्षपणा का वर्णन किया है। अतः विशेष विवेचन की अपेक्षा नहीं है। भावक्षपणा ५८८. से किं तं भावज्झवणा ? भावझवणा दुविहा पण्णत्ता । तं जहा—आगमतो य णोआगमतो य । [५८८ प्र.] भगवन् ! भावक्षपणा का क्या स्वरूप है ?

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