Book Title: Agam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Author(s): Aryarakshit, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 464
________________ समवतारनिरूपण ४१३ से सभी कालभेद अपने ही स्वरूप में रहते हैं तथा तदुभयसमवतार से परभाव और आत्मभाव दोनों में रहते हैं। जैसे आनप्राण आत्मभाव में भी और परभाव स्तोक में भी समवतीर्ण होता है। इसी प्रकार अन्य कालभेदों के लिए जानना चाहिए। किन्तु पुद्गलपरावर्तन का तदुभयसमवतार की अपेक्षा अतीत-अनागत काल में समवतार बताने का कारण यह है कि पुद्गलपरावर्तन असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीकालप्रमाण है, जिससे समयमात्र प्रमाण वाले वर्तमान काल में उस बृहत्कालविभाग का समवतार संभव नहीं होने से अनन्त समय वाले अतीत-अनागत काल का कथन किया है। इस प्रकार कालसमवतार का स्वरूप जानना चाहिए। भावसमवतार ५३३. से किं तं भावसमोयारे ? भावसमोयारे दुविहे पण्णत्ते । तं जहा आयसमोयारे य तदुभयसमोयारे य । कोहे आयसमोयारेणं आयभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं माणे समोयरति आयभावे य । एवं माणे माया लोभे रागे मोहणिज्जे अट्ठकम्मपगडीओ आयसमोयारेणं आयभावे समोयरंति, तदुभयसमोयारेणं छव्विहे भावे समोयरंति आयभावे य । एवं छव्विहे भावे जीवे जीवत्थिकाए आयसमोयारेणं आयभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं सव्वदव्वेसु समोयरति आयभावे य । एत्थं संगहणिगाहा कोहे माणे माया लोभे रागे य मोहणिजे य । पगडी भावे जीवे जीवत्थिय सव्वदव्वा य ॥ १२४॥ से तं भावसमोयारे । से तं समोयारे । से तं उवक्कमे । [५३३ प्र.] भगवन् ! भावसमवतार का क्या स्वरूप है ? [५३३ उ.] आयुष्मन् ! भावसमवतार दो प्रकार का कहा गया है । यथा—आत्मसमवतार और तदुभयसमवतार। आत्मसमवतार की अपेक्षा क्रोध निजस्वरूप में रहता है और तदुभयसमवतार से मान में और निजस्वरूप में भी समवतीर्ण होता है। इसी प्रकार मान, माया, लोभ, राग, मोहनीय और अष्टकर्म प्रकृतियां आत्मसमवतार से आत्मभाव में तथा तदुभयसमवतार से छह प्रकार के भावों में और आत्मभाव में भी रहती हैं। इसी प्रकार (औदयिक आदि) छह भाव जीव, जीवास्तिकाय, आत्मसमवतार की अपेक्षा निजस्वरूप में रहते हैं और तदुभयसमवतार की अपेक्षा द्रव्यों में और आत्मभाव में भी रहते हैं। इनकी संग्रहणी गाथा इस प्रकार है ___ क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, मोहनीयकर्म, (कर्म) प्रकृति, भाव, जीव, जीवास्तिकाय और सर्वद्रव्य (आत्मसमवतार से अपने-अपने स्वरूप में और तदुभयसमवतार से पररूप और स्व-स्वरूप में भी रहते हैं)। १२४ यही भावसमवतार है। इसका वर्णन होने पर सभेद समवतार और उपक्रम नाम के प्रथम द्वार की वक्तव्यता समाप्त हुई।

Loading...

Page Navigation
1 ... 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553