Book Title: Agam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Author(s): Aryarakshit, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 454
________________ वक्तव्यता निरूपण ४०३ अब क्रमप्राप्त उपक्रम के चतुर्थ भेद वक्तव्यता का निरूपण करते हैं। वक्तव्यता के भेद ५२१. से किं तं वत्तव्वया ? वत्तव्वया तिविहा पण्णत्ता । तं जहा ससमयवत्तव्वया परसमयवत्तव्वया ससमयपरसमयवत्तव्वया । [५२१ प्र.] भगवन्! वक्तव्यता का क्या स्वरूप है ? [५२१ उ.] आयुष्मन् ! वक्तव्यता तीन प्रकार की कही गई है, यथा स्वसमयवक्तव्यता, २. परसमयवक्तव्यता और ३. स्वसमय-परसमयवक्तव्यता। वक्तव्यता अध्ययन-आदिगत प्रत्येक अवयव के अर्थ का यथासंभव प्रतिनियत विवेचन करना।' वक्तव्यता के तीन भेद क्यों?— प्रस्तुत में समय का अर्थ सिद्धान्त या मत है । अतः स्व—अपने सिद्धान्त का प्रस्तुतीकरण स्वसमयवक्तव्यता, पर—अन्य के सिद्धान्त का निरूपण परसमयवक्तव्यता एवं स्वपर—दोनों के सिद्धान्तों का विवेचन करना स्वपरसमयवक्तव्यता है। इनकी पृथक्-पृथक् व्याख्या आगे की जाती है। स्वसमयवक्तव्यता निरूपण ५२२. से किं तं ससमयवत्तव्वया ? ससमयवत्तव्वया जत्थ णं ससमए आघविजति पण्णविजति परूविजति दंसिजति निदंसिजति उवदंसिजति । से तं ससमयवत्तव्वया । [५२२ प्र.] भगवन् ! स्वसमयवक्तव्यता क्या है ? [५२२ उ.] आयुष्मन्! अविरोधी रूप से स्वसिद्धान्त के कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन करने को स्वसमयवक्तव्यता कहते हैं। यही स्वसमयवक्तव्यता है। विवेचन— पूर्वापरविरोध न हो, इस प्रकार अपने सिद्धान्त की अविरोधी क्रमबद्ध व्याख्या करने को स्वसमयवक्तव्यता कहते हैं। यद्यपि आघविज्जति आदि उवदंसिज्जति पर्यन्त शब्द सामान्यतः समानार्थक-से प्रतीत होते हैं, लेकिन शब्दभेद से अर्थभेद होने से उनका पृथक्-पृथक् आशय इस प्रकार है आघविज्जति- सामान्य रूप से कथन करना, व्याख्यान करना । जैसे कि धर्मास्तिकाय आदि पांच अस्तिकाय द्रव्य हैं। अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गल, ये बहुप्रदेशी पांचों द्रव्य त्रिकाल अवस्थायी हैं। पण्णविजति— अधिकृत विषय की पृथक्-पृथक् लाक्षणिक व्याख्या करना । जैसे जीव और पुद्गल की गति में जो सहायक हो, वह धर्मास्तिकाय है, इत्यादि। परूविजति— अधिकृत विषय की विस्तृत प्ररूपणा करना। जैसे—धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश हैं, इत्यादि। १. अध्ययनादिषु प्रत्यवयवं यथासंभवं प्रतिनियतार्थकथनं वक्तव्यता । -अनुयोग. मलधारीया वृत्ति, पृ. २४३

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