Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 587
________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र० २ नपुसकानां स्थितिनिरूपणम् ५६३ कमनुष्यनपुंसकस्यापि प्रत्येकं सामान्यतो मनुष्यनपुंसकवदेवान्तरं जघन्योत्कर्षाभ्यां क्षेत्रधर्माश्रय-- णेन च ज्ञातव्यमिति ॥ अकम्मभूमिगमणुस्सणपुसगस्स णं भंते अकर्मभूमिकमनुष्यनपुंसकस्य खलु भदन्त ! 'केवइयंकालंअंतरंहोइ' कियन्तं कालमन्तरं भवति नपुंसकत्वस्येति प्रश्नः, भगवानाह-- 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम । 'जम्मणं पडुच्च' जन्मप्रतीत्य-आश्रित्य 'जहन्नेणंअंतो मुहुत्त' जघन्येनान्तर्मुहूत्तम्, जन्मापेक्षयाजधन्येनान्तर्मुहूर्तमात्रमन्तरम्, एतावतैव गत्यन्तरादिकालेन व्यवधानभावात्, 'उक्कोसेणंवणस्सइकालो' उत्कर्षेण वनस्पतिकालंयावदन्तरं भवतीति । 'संहरणंपडुच्च' सहरणं प्रतीत्य 'जहन्नेणंअंतोमुहुत्तं' जघन्येर्नान्तर्मुहूर्तमन्तरं भवति तच्चैवं भवति-कोऽपि कर्मभूमिकमनुष्यनपुंसक' केनापि अकर्मभूमौ सहृतः सचाकर्मभूमौ स्थितिमत्वादकर्मभूमिक इति कथ्यते, ततः कियत्कालानन्तरं तथाविधबुद्धिपरावर्तनभावतः पुनरपि कर्मभूमौ सहृतः तत्र चान्तर्मुहूर्त स्थापयित्वा पुनरपि, अकर्मभूमावानीत इत्येवं रूपेण सहरणापेक्षया अन्तजघन्य एवं उत्कृष्ट रूप से जानना चाहिए, अकम्मभूमिगमणुस्सण पुंसगस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ” हे भदन्त ! अकर्मभूमिक मनुष्यनपुंसक का अन्तर कितने काल का होता है ? “गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं अंतो 'मुहुत्त उक्कोसेणं वणस्सइकालो" हे गौतम ! जन्म की अपेक्षा लेकर जघन्य से अन्तर एक अन्तर्मुहूर्त का है क्योकि इसके गत्यन्तरादिको लेकर इतने ही काल का व्यवधान पडता है और उत्कृष्ट से अन्तर वनस्पतिकाल तक है "संहरणं पडच्च जहन्नेणं अंतो मुहुत्त” संहरण की अपेक्षा लेकर अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक का अन्तर जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का है यह ऐसे है-कोई कर्मभूमिक मनुष्यनपुंसक किसी के द्वारा अकर्मभूमि में हरण कर ले जाया गया हो वहाँ ठहरने के कारण वह वहां अकर्मभूमिक कहलाया अब कुछ काल के वाद तथाविध बुद्धि के परावर्तन भाव से वह कर्मभूमि में वापिस ले आया गया यहां यह एक अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा बाद में पुनः उसका अकर्मभूमि में अपहरण सपा पहला ५२वत ॥ सुधातु छे. हेश ! म पुल परावत ' भरहेर वयस्स" , ભરત અને અરવત ક્ષેત્રના મનુષ્ય નપુંસકેનું અંતર પણ સામાન્ય નપુંસકોના કથન પ્રમાણે छ. "पुचविदेह अवरविदेहस्स वि" रेप्रमाणे सामान्य भभूमिना मनुष्य न सहानु અંતર કહ્યું છે, એ જ પ્રમાણે પૂર્વ વિદેહ અને પશ્ચિમ વિદેહના મનુષ્ય નપુસકેનું અંતર પણ क्षेत्र भने यात्रिधर्मनी माश्रय शने धन्य समे ट पाथी समायु: "अक्म्मभूमि- - गमणुस्स णपुंसंगस्स णं भंते ! केवईयं कालं अन्तरंहोइ" भगवन समभिना मनुष्य નપુંસકેનું અતર કેટલા કાળનું હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ સ્વામીને કહે छ - "गोयमा । जग्म णं पहुच्च जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्स कालो" ગૌતમ ! જન્મની અપેક્ષા જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂર્તનું અંતર છે કેમકે–તેમની ગત્યંતર વિગેરેને લઈને એટલા જ કાળનુ વ્યવસાન પડે છે અને ઉત્કૃષ્ટથી વનસ્પતિ કાળનું અંતર

Loading...

Page Navigation
1 ... 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693