Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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उपर्युक्त समग्र कथन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वैदिक धर्मधारा व्यक्ति में ऐसा कोई उत्साह जाग्रत नहीं कर सकी जो व्यक्तित्व-विकास का आवश्यक अंग है, नर से नारायण बनने का प्रशस्त पथ है । कालक्रम से परस्पर भिन्न आचार-विचारों के प्रवाह उसमें मिलते रहे। अतएव यह कहने में कोई सक्षम नहीं है कि वैदिक धर्म का मौलिक रूप अमुक है ।
लेकिन जब हम जैन धर्म के साहित्य की अथ से लेकर अर्वाचीन धारा तक पर दृष्टिपात करते हैं तो भाषागत भिन्नता के अतिरिक्त प्राचार-विचार के मौलिक स्वरूप में कोई अन्तर नहीं देखते हैं। जैनों के प्राराध्य कोई व्यक्तिविशेष नहीं, अमुक नाम वाले भी नहीं किन्तु वे हैं जो पूर्ण प्राध्यात्मिक शक्तिसम्पन्न वीतराग हैं। वीतराग होने से वे आराधक से न प्रसन्न होते हैं और न अप्रसन्न ही। वे तो केवल अनुकरणीय आदर्श के रूप से प्राराध्य हैं।
यही कारण है कि जैनधर्म में व्यक्ति को उसके स्वत्व का बोध कराने की क्षमता रही हुई है। सारांश यह है कि मानव की प्रतिष्ठा बढ़ाने में जैन धर्म अग्रसर है। इसलिये किसी वर्णविशेष को गुरुपद का अधिकारी और साहित्य का अध्ययन करने वाला स्वीकार नहीं करके वहाँ यह बताया कि जो भी त्याग तपस्या का मार्ग अपनाए, चाहे वह शूद्र ही क्यों न हो, गुरुपद को प्राप्त कर सकता है और मानव मात्र का सच्चा मार्गदर्शक भी बन सकता है एवं उसके लिए जैनशास्त्र-पाठ के लिये भी कोई बाधा नहीं है।
इसी प्रकार की अन्यान्य विभिन्नताएँ भी वैदिक और जैन धारा में हैं। जिन्हें देखकर कतिपय पाश्चात्य दार्शनिक विद्वानों ने प्रारम्भ में यह लिखना शुरू किया कि बौद्धधर्म की तरह जैनधर्म भी वैदिकधर्म के विरोध के लिये खड़ा किया गया एक क्रांतिकारी नया विचार है। लेकिन जैसे-जैसे जैनधर्म और बौद्धधर्म के मौलिक साहित्य का अध्ययन किया गया, पश्चिमी विद्वानों ने ही उनका भ्रम दूर किया तथा यह स्वीकार कर लिया गया कि जैनधर्म वैदिकधर्म के विरोध में खड़ा किया नया विचार नहीं किन्तु स्वतन्त्र धर्म है, उसकी शाखा भी नहीं है।
जैन-साहित्य का आविर्भाव काल
जैन परम्परा के अनुसार इस भारतवर्ष में कालचक्र उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के रूप में विभक्त है। प्रत्येक के छह आरे -विभाग-होते हैं। अभी अवसर्पिणी काल चल रहा है, इसके पूर्व उत्सपिणी काल था। इस प्रकार अनादिकाल से यह कालचक्र चल रहा है और चलता रहेगा। उत्सर्पिणी में सभी भाव उन्नति को प्राप्त होते हैं और अवसर्पिणी में ह्रास को। किन्तु दोनों में तीर्थंकरों का जन्म होता है, जिनकी संख्या प्रत्येक विभाग में चौबीस होती है। तदनुसार प्रस्तुत अवसर्पिणी काल में चौबीस तीर्थकर हो चुके हैं। उनमें प्रथम ऋषभदेव और अंतिम महावीर हैं। दोनों के बीच असंख्य वर्षों का अंतर है। इन चौबीस तीर्थंकरों में से कुछ का निर्देश जैनेतर शास्त्रों में भी उपलब्ध है।
इन चौबीस तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट और उस उपदेश का आधार लेकर रचा गया साहित्य जैन परम्परा में प्रमाणभूत है। जैन परम्परा के अनुसार तीर्थंकर अनेक हों किन्तु उनके उपदेश में साम्य होता है और जिस काल में जो भी तीर्थकर हों, उन्हीं का उपदेश और शासन तात्कालिक प्रजा में विचार और प्राचार के लिये मान्य होता है। इस दृष्टि से भगवान् महावीर अंतिम तीर्थंकर होने से वर्तमान में उन्हीं का उपदेश अंतिम उपदेश है और वही प्रमाणभूत है । शेष तीर्थंकरों का उपदेश उपलब्ध भी नहीं है और यदि हो, तब भी वह भगवान महावीर के उपदेश के अन्तर्गत हो गया ऐसा मानना चाहिये । इसकी पुष्टि डा. जैकोबी आदि के विचारों से भी होती है।
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