Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ जे साहित्य भगवान महावीरना अनुयायीओए गूंथेलं छे ए जोतां एमनी सामेनी ए बधी श्रमणब्राह्मणपरंपराओनी माहिती आपणने मळी शके एम छे. ए परंपराओमाथी प्रेरणा मेळवीने तेमणे हवे पोताना जीवननी गूंच उकेलवा अने विश्वमा रहेवा छतां तेनाथी थता त्रासोथी मुक्त रहेवानो मार्ग शोधवा अखंड अने उग्र प्रयत्न चालु कर्यो. तेओ पोतानी त्रीश वर्षनी उम्मरे एटले के भरजुवानीमां साधना करवा नीकळी पड्या, एथी ज एम जणाय छे के तेमने एमाटे केटली तालावेली हती. तेओ राजपाट, समृद्धि अने भोगविलासनो त्याग करीने कडकडता शियाळामां घर बहार नीकळी पंड्या. वस्त्रथी देह ढांकवानी पण इच्छा नहि करेली. घरेथी नीकळ्या पछी बराबर बार वर्ष सुधी तेमणे भारे साधना करी, जे साधनामा तेमने शारीरिक भने मानसिक अनेक कष्टो सहवां पड्यां, जेनो सविस्तर निर्देश जैनागमोमां अकृत्रिम भाषामां आपणी सामे मोजुद छे. मैज्झिमनिकायना सिंहनादसुत्तमा जे जातनी रोमांचकारी साधना बुद्ध भगवाने पोते वर्णवेली छे तेवी ज साधना आ भगवान वर्धमान-महावीरनी हती. ए साधनाना परिणामे तेओए हवे सर्वप्रकारनी स्थिरता साधी मानसिक, वाचिक अने कायिक प्रवृत्तिओ पर तेओ निरंतर अंकुश राखी शके तेवा समर्थ थया. अने सर्व प्रकारनी आसक्ति, तृष्णा तेमणे ते साधनाद्वारा उच्छेदी नाखी. ए प्रमाणे स्थितप्रज्ञपणुं अने वीतरागभाव प्राप्त कर्या पछी अने विश्वने लगतुं घणुं गंभीर मनन कर्या पछी पोताना जमानाना लोको के जेओ आर्योए स्थिर करेला आदर्शथी घणा च्युत थयेला हता अने जेओनी एवी भ्रमणा हती के कर्मकांड के देहदंडमां ज सर्व सिद्धि समायेली छे, कर्मकांडमा हरेक प्रकारनी हिंसाने, असत्यने धार्मिक स्थान छे-ते पण वेदने नामे, ईश्वरने नामे, ते लोकोनी ते भ्रमणा टाळवा अने फरी वार आर्योए शोधेला अहिंसा, सत्य, सर्वत्र बंधुभाव अने गुणनी प्रधानताना सिद्धांतोने प्रचारमा मूकवा देश, काल अने प्रजाशक्तिने अनुसारे तेओ पोतानां प्रवचनो मगध देशमा फरी फरीने करवा लाग्या. आ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रमा तेमनां केटलांक ते प्रवचनोनी नोंधोनो संग्रह तेमना समसमयी के परवर्ती अनुयायीओए करेलो छे. आ ग्रंथमा जीवनशुद्धिनी मीमांसा अने विश्वविचार ए बन्ने मुद्दाओ परत्वे जे कांई कहेवामां आव्यु छे ते आजथी अढी हजार वर्ष पहेलांना सत्यना अने जीवनशुद्धिना उपासकोनी अगाध बुद्धि अने शुद्धिनुं उंडाण बताववाने पूरतुं छे. जो के ग्रंथमा चर्चा बन्ने मुद्दानी छे पण मुख्य मुद्दो तो जीवनशुद्धिनी मीमांसानो ज छे. विश्वविचारनो जे मुद्दो साथे चर्चेलो छे तेने जीवनशुद्धिमा सहायक समजीने चर्चवामां आवेलो छे. जीवनशुद्धि विनाना मात्र ते मुद्दाना नर्या ज्ञानथी ज श्रेयप्राप्ति नथी एम भगवान महावीरे पदे पदे कहेलं छे. जीवनशुद्धिना मुद्दाने चर्चता पण केटलीक एवी चर्चा करवामां आवी छे जे चर्चा ते समयनी रूढिने तोडी जीवनशुद्धिनो नवो मार्ग बतावनारी छे. जीवनशुद्धि आ ग्रंथमा भगवाने कयुं छे के संवर दुःख मात्रनो नाश करे छे, संवर एटले के इन्द्रियो उपरनो जय, मन उपरनो जय, वासना उपरनो जय ढूंकामा आत्मभानमां अंतरायभूत बधी वृत्तिओनो निरोध. भगवाने कर्तुं छे के कोई व्यक्ति अणगार-त्यागी-थाय एटले के.तेने लोको श्रमण तरीके ओळखे एवो वेश पहेरे, एवी वेशधारी व्यक्ति जो संवरविनानी होय तो तेनो संसार घटवाने बदले वध्या ज करे छे अने ते भारेकर्मी थई आ अनादि अनंत संसारमा लांबा काळ सुधी रखड्या ज करे छे. (भा० १ पा० ८१) भगवानना आ कथन- तात्पर्य ए छे के मात्र वेशथी जीवनशुद्धि थती नथी, घई नयी अने थशे पण नहि. जीवनशुद्धिमा मुख्य कारण संवर छे ए भूल न जोइए. एज प्रमाणे जे प्राणी असंयत छे जेमां त्यागवृत्ति जरा पण जागेली नथी तेवा प्राणीओनो निस्तार नथी. एवी कोटिना प्राणीओमां जेओ परतंत्रपणे पण इंद्रियो उपर अंकुश राखे छे, शरीर उपर अंकुश राखे छे अने भाषा उपर अंकुश राखे छे तेओ ए परतंत्रपणे केळवायेली सहनशक्तिने लीघे भविष्यमा सारी स्थिति मेळवे छे. (भा०१ पा०८४) आमां भगवानना कथननु तात्पर्य ए छे के परतंत्रपणे पण केळवायेलो संयम जीवनविकासमां थोडी घणी मदद करी शके छे, तो जे मनुष्यो ए संयमने खेच्छाए केळवे तेओनो विकास सरल रीते थाय तेमां तो कहे ज शु! १ “णो चेव-इमेण वत्थेण पिहिस्सामि तंसि हेमंते। "ते पारगामी (भगवान महावीरे) एवो संकल्प कयों के जीवनपर्यंत से पारए भावकहाए एवं खु आणुधम्मियं तस्स" ॥ हुआ वनथी (देहने ) ढांकीश नही, तेमनो ए (संकल्प) योग्य ज कहेवाय" [आचारांग सूत्र उपधान भुत अ. ९ गाथा २] २ जूओ आचारांग-उपधानथुत अध्ययन ९। ३ जूओ भगवान युद्धना पचास धर्म संवादो । ४ "दुःखेष्वनुदिनमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयकोधः स्थितधीर्मुनिरुध्यते ॥"-गीता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 442