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आदिपुराण आचार्य जिनसेन (9वीं शती) द्वारा प्रणीत 'आदिपुराण' प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव तथा भरत-बाहुबली के पुण्य-चरित के साथ-साथ भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के मूल स्रोतों एवं विकासक्रम को आलोकित करने वाला अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। जैन संस्कृति एवं इतिहास के अध्ययन के लिए यह अनिवार्य है। यह मात्र पुराण-ग्रन्थ ही नहीं है, एक श्रेष्ठ महाकाव्य भी है। विषय-प्रतिपादन की दृष्टि से यह धर्मशास्त्र, राजनीति-शास्त्र और आचारशास्त्र भी माना गया है। मानव-सभ्यता की आद्य व्यवस्था का प्रतिपादन करने के कारण इसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है। मानव-समाज का विकासक्रम, विभिन्न समूहों में उसका वर्गीकरण, वर्ग-विशेष के धार्मिक संस्कार आदि अनेक आयामों की इसमें विशद रूप से विवेचना की गयी है। संस्कृत एवं विभिन्न भारतीय भाषाओं के परवर्ती कवियों के लिए यह उपजीव्य ग्रन्थ बना रहा है। सम्पूर्ण कृति (आदिपुराण) भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा दो भागों में प्रकाशित है। ग्रन्थ के सम्पादक हैं-जैन धर्म-दर्शन तथा संस्कृत साहित्य के अप्रतिम विद्वान् डॉ. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य । ग्रन्थ में संस्कृत मूल के साथ हिन्दी अनुवाद, महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना एवं परिशिष्टों के रूप में पारिभाषिक, भौगोलिक और व्यक्तिपरक शब्द-सूचियाँ भी दी गयी हैं। इससे यह शोधकर्ताओं, विशेषकर पुराण एवं काव्यसाहित्य का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करनेवालों के लिए अपरिहार्य ग्रन्थ बन गया है। विषयक्रम की दृष्टि से ग्रन्थ का तीसरा भाग है-आचार्य गुणभद्र द्वारा रचित 'उत्तरपुराण' (ज्ञानपीठ प्रकाशन) जिसमें ऋषभदेव के उत्तरवर्ती शेष 23 तीर्थंकरों, 11 चक्रवर्तियों, 9 बलभद्रों, 9 नारायणों, 9 प्रतिनारायणों तथा तत्कालीन विभिन्न राजाओं एवं पुराण-पुरुषों के जीवन-वृत्तों का सविशेष वर्णन है। प्रस्तुत है-आदिपुराण के दोनों भागों का यह नया संशोधित संस्करण।