Book Title: Adhyatmik Daskaran
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 11
________________ २० दशकरण चर्चा मिथ्यात्वादि तीव्र कषाय परिणाम पापमय है। अज्ञानी जीव अनादिकाल से मिथ्यात्व के वश होने से सहज ही सर्वज्ञ प्रणीत आबाधाकाल के स्वरूप को न जानने वाला मिथ्यात्व एवं सप्तव्यसनादि अति घोर पापमय परिणाम करता रहता है। अन्याय, अनीति के साथ अभक्ष्य का खान-पान भी बिना संकोच करता रहता है; क्योंकि उसको ऐसा लगता है कि हम तो पाप कर रहे हैं, उसका फल कहाँ मिल रहा है। उसी समय सहज योग से उसको उसी जीव के ही पूर्वबद्ध पुण्य के उदय से मनुष्य जीवन में सब प्रकार की अनुकूलता मिलती रहती है। इससे उसे पुण्यपाप की शास्त्रीय धारणा मिथ्या लगती है। कर्मबन्धन एवं कर्मोदय तथा आबाधाकाल- इनका ज्ञान न होने से निशुद्धात्मस्वरूप से अनभिज्ञ अज्ञानी को अपने मिथ्यात्व अथवा सप्तव्यसन के कारण से, अन्याय, अनीति से अनुकूलता मिल रही है; ऐसा भ्रम रहता है। इस कारण अन्याय-अनीतिमय कार्य ही में उसकी प्रीति एवं श्रद्धा बढ़ती रहती है और इन पापमय विपरीत कार्य तथा अन्यथा श्रद्धा के साथ दुर्लभ मनुष्य जीवन का विशेष लाभ प्राप्त न करते हुए व्यर्थ ही जीवन समाप्त होता है। कोई भी छोटा-बड़ा पाप हो, उस पाप का उसी समय पाप करनेवाले को पापरूप कर्म का बंध तो नियम से होता है; तथापि उसी समय हुए उस पापकर्म के बंध का फल न मिलने का भी नियम है। विशेष बात यह है कि दीर्घ स्थितिवाले पाप कर्म का तो दीर्घ समय पर्यन्त फल न मिलने का नियम है। इसीतरह दीर्घ स्थितिवाले पुण्य कर्म हो तो भी दीर्घ समय पर्यन्त फल न मिलने का नियम है। कर्म का बंध होने के बाद 'कुछ काल व्यतीत होने पर ही कर्म के फल मिलने का जो यह नियम है, उसे ही आबाधाकाल कहते हैं।' यदि जीव को आबाधाकाल एवं कर्मोदय की जानकारी हो जाय तो पापमय परिणाम तथा पाप कार्य से अनुकूलता मिलती है, यह भ्रम टूट 3D KailashData Ananji Adhyatmik Duskaran Book (11) बंधकरण आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर अ. १ जायेगा और पापमय जीवन को छोड़ने की सहज प्रेरणा मिलेगी। २. कर्म सिद्धान्त को न जाननेवाला कोई परोपकारादि पुण्यमय कार्य करता रहता है । पूजा, परोपकार, व्यवहारप्रभावनादि कार्यों में जुड़ा रहता है; तथापि उसे पूर्वबद्ध पापकर्म का तीव्र उदय आने से प्रतिकूलता भी प्राप्त हो सकती है। वह सोचता है - यह क्या हो गया, यह क्या हो रहा है? मेरा जीवन तो पुण्यमय है और मुझे इतनी प्रतिकूलताएँ तथा परेशानियाँ क्यों हैं? पुण्यमय परिणाम तथा सदाचारी जीवन से कुछ लाभ नहीं। दुनियाँ में पापी जीव ही पूजे जा रहे हैं। मुझे भी उनके समान ही पापरूप ही जीवन बिताना चाहिए। २१ अनेक मोक्षमार्गी श्रावक - साधुओं को भी परीषह और उपसर्ग उनके जानने-देखने में आते हैं। इस कारण उन अज्ञानी की सन्मार्ग के संबंध में श्रद्धा डगमगाने लगती है। उस अज्ञानी को यदि यह पता चले कि अभी जो पुण्यमय कार्य से पुण्यकर्म का बंध हो रहा है, इसका फल तो कुछ काल बाद अर्थात् कर्म का आबाधाकाल पूरा होने पर ही मिलेगा । मुझे जो प्रतिकूल संयोग प्राप्त हो रहे हैं, ये तो पूर्वबद्ध पापकर्म के फलस्वरूप है। मोक्षमार्ग में विशुद्धता से पापकर्म की उदीरणा होकर निर्जरा के लिए आ रहे हैं, जो कर्ज लिया था, वह समाप्त हो रहा है। इनसे मुझे प्रभावित नहीं होना चाहिए। मुझे धैर्य रखना चाहिए। • जिस कार्य का फल तत्काल आकुलता है और बाद में भी आकुलता ही है, उसे कर्म कहते हैं और जिस कार्य का फल तत्काल, निराकुलता बाद में भी निराकुलता है उसे धर्म कहते हैं। ऐसी सच्ची समझ होने पर अज्ञानी जीव ज्ञानी होकर धर्मात्मा होता है। इस तरह आबाधाकाल को जानने से लाभ ही लाभ है।

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