Book Title: Adhyatmik Daskaran
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 30
________________ दशकरण चर्चा उनके नाम क्रमश: वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र हैं। प्रत्येक का कार्य भी भिन्न-भिन्न है। वेदनीय :- अनुकूल अथवा प्रतिकूल बाह्य संयोगों की प्राप्ति कराना एवं जीव के सुख-दुःखभाव के वेदन में निमित्त होना, ये वेदनीय कर्म के कार्य हैं। आयु :- विशिष्ट काल मर्यादा तक जीव को मनुष्यादि गतियों में रोके रखने में मात्र निमित्त होना, यह आयु कर्म का कार्य है। नाम :- नाम कर्म के निमित्त से गति, जाति, शरीर आदि का जीव से संयोग कराने में निमित्त होना, यह नाम कर्म का कार्य है। गोत्र :- जीव का नीच अथवा उच्च विचार वाले कुल में जन्म होने में निमित्त होना, यह गोत्र कर्म का कार्य है। इसतरह चारों अघाति कर्मों का कार्य विभिन्न प्रकार के संयोग प्राप्त कराने में निमित्त रूप से ही फलता है अर्थात् अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों को प्राप्त कराने में ही चारों अघाति कर्म कार्य करते हैं; निमित्त होते हैं। इनका संबंध जीव के परिणामों से नहीं है। संसारमार्ग अथवा मोक्षमार्ग के साथ भी इन कर्मों का कुछ संबंध नहीं है। संयोग प्राप्त कराने में ही अघाति कर्म काम करते हैं। संयोग न संसार का कारण है न मोक्ष का। पर पदार्थ का संयोग जीव को सुखदुख का दाता नहीं है। संयोग तो अन्य जीव एवं पुद्गलादिरूप है। संयोग में वेदनीय आदि कर्म ही बलवान है, ऐसा उपचार से कहोगे तो भी हमें कुछ आपत्ति नहीं है। संयोगरूप पदार्थ पर द्रव्यरूप है। संयोग-वियोग तो अघाति कर्मों से होता है; उसमें जीव का कुछ कर्त्तव्य घातिकर्मों के कार्य नहीं है।' ज्ञानावरणादि चार घाति कर्म हैं। ज्ञानावरण-दर्शनावरण के क्षयोपशम के निमित्त से ज्ञान और दर्शन गुण की अल्प मात्रा में व्यक्तता १. मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २५ Aamjeanskr (30) आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (उदयकरण) अ. ३ रहती है। मोहनीय के निमित्त से मिथ्या श्रद्धान तथा क्रोधादि विकार भाव उत्पन्न होते हैं। अंतराय के उदय से जीव के स्वभाव दीक्षा लेने आदि के सामर्थ्यरूप वीर्य की व्यक्तता नहीं होती। ऊपर जो लिखा है, वह मोक्षमार्गप्रकाशक के भाव को ही अलग शब्दों में लिखा है। आगे कर्म के बलवानपने को लेकर पण्डित टोडरमलजी के विचार उन्हीं के शब्दों में दे रहे हैं - २. “यहाँ कोई प्रश्न करे कि - कर्म तो जड़ हैं, कुछ बलवान् नहीं हैं; उनसे जीव के स्वभाव का घात होना व बाह्य सामग्री का मिलना कैसे संभव है? समाधान :- यदि कर्म स्वयं कर्ता होकर उद्यम से जीव के स्वभाव का घात करे, बाह्य सामग्री को मिलावे तब तो कर्म के चेतनपना भी चाहिये और बलवानपना भी चाहिये; सो तो है नहीं, सहज ही निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है। जब उन कर्मों का उदयकाल हो; उस काल में स्वयं ही आत्मा स्वभावरूप परिणमन नहीं करता, विभावरूप परिणमन करता है, तथा जो अन्य द्रव्य हैं, वे वैसे ही सम्बन्धरूप होकर परिणमित होते हैं। जैसे - किसी पुरुष के सिर पर मोहनधूल पड़ी है, उससे वह पुरुष पागल हुआ; वहाँ उस मोहनधूल को ज्ञान भी नहीं था और बलवानपना भी नहीं था; परन्तु पागलपना उस मोहनधूल ही से हुआ देखते हैं। __वहाँ मोहनधूल का तो निमित्त है और पुरुष स्वयं ही पागल हुआ परिणमित होता है - ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक बन रहा है। ___ तथा जिस प्रकार सूर्य के उदय के काल में चकवा-चकवियों का संयोग होता है; वहाँ रात्रि में किसी ने द्वेषबुद्धि से बलजबरी करके अलग नहीं किये हैं, दिन में किसी ने करुणाबुद्धि से लाकर मिलाये नहीं १. मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २४

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