Book Title: Adhyatmik Daskaran
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 71
________________ १३६ दशकरण चर्चा आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (निधत्तिकरण-निकाचितकरण) अ.८ १३७ विशेष खुलासा करते हुए हम यह भी कह सकते हैं कि जो जीव उसका भान/ज्ञान नहीं रखता तो कर्म बलवान है, कर्म जीव को परेशान यथार्थ देव-शास्त्र-गुरु की विराधना करता हो, सप्त तत्त्व का विरोध करता है, ऐसा अनादि का रूढ़ व्यवहार चलता है। इस व्यवहार का करता हो, सप्त व्यसनों में लिप्त रहना जिनकी जीवन-चर्या बन गयी हो, स्वीकार जिनवाणी माता ने भी अपने कथन में किया ही है। तीव्र हिंसादि पाप परिणाम एवं कार्य जिनके लिए सहज हो, ऐसे जीव जीव अपनी वर्तमानकालीन अवस्था में वीतरागता प्रगट करता पापरूप निधत्ति, निकाचित कर्मों का बंध करेंगे। है, जब जीव का कर्म से युद्ध प्रारंभ होता है। प्रारम्भ में जीव की उसीप्रकार जो जीव अष्टांग सम्यग्दर्शन सहित जीवन बिताते हो। धर्मरूप पर्याय (वीतरागता) अल्प मात्रा में रहती है, जब अनादिकालीन सप्त तत्त्व, नव पदार्थों का यथार्थ ज्ञान रखते हो एवं जिनेन्द्र शासन की कर्मरूपी शत्रु से युद्ध करने में सामर्थ्य की मात्रा कम रहती है, तब जीव प्रभावना करने में जिसका जीवन समर्पित हो। एकेन्द्रियादि सर्व जीवों के बलहीनपना को स्पष्ट करने के लिए कर्म को बलवान कहने का कार्य की हिंसा से विरत हो । अन्य असत्यादि पापों से सर्वथा रहित हो गये होता ही है। यह कथन वर्तमान अवस्था की अपेक्षा असत्य भी नहीं है; हो, जिनके श्वाच्छोश्वास में दयापालन का भाव हो। - ऐसे परिणामों क्योंकि जीव तो अपना बल प्रगट ही नहीं करता तो कर्म को बलवान के धारक जीव पुण्यरूप निधत्ति-निकाचित कर्मों का बंध कर सकते हैं। एवं (स्वभाव से अनंत वीर्यवान् जीव को भी मजबूरीवश ज्ञानियों से) बलहीनपने की उपाधि मिलती है। (करणानुयोग के अभ्यासुओं से निवेदन है कि वे इस प्रश्न के उत्तर जीव को अपना ज्ञान/भान होने पर अर्थात् सम्यग्दर्शन प्रगट होने संबंधी मुझे मार्गदर्शन करें।) पर जीव का मानस कर्म को पराजित करने का बनता है। अपनी शक्ति निधत्ति, निकाचितरूप कर्म के विषय में मुझे अनेक शंकाएँ हैं; के अनुसार विपरीत मान्यतारूप अधर्म का नाश करके मिथ्यात्व एवं उनको लेकर मुझे विशेष जिज्ञासा है। मैं आगम के आधार से समाधान अनन्तानुबंधी कर्म को पछाड़कर प्रारम्भ में ही नष्ट करता है। यह बहुत चाहता हूँ; जिससे अनेक पात्र जीव अपनी जीवन की दिशा बदल सके। बड़ा काम हो गया। भाईसाहब! पहले शास्त्र के आधार से निधत्ति-निकाचित की ___ अब जीव को आत्मसामर्थ्य का विश्वास हो गया। धीरे-धीरे परिभाषा जानने का काम करें। किसी भी शंका का समाधान तो ज्ञान/ जीव अपना सामर्थ्य बढ़ाता रहता है। इसी क्रम में मुनिपना के लिए जानने से ही होगा। योग्य धर्म प्रगट हो गया। आत्मानन्द बढ़ता रहा, तथापि कर्म को जब और जहाँ भी हार तथा जीत का प्रसंग रहता है, तब सामान्य अर्थात् अपने विभाव भावों को आमूलचूल नष्ट करके साक्षात् भगवान बनने के मार्ग में कठिनाईयों को यहाँ निधत्ति, निकाचित कर्म नाम से नियम यह है कि बलवान जीतता है और बलहीन हार जाता है। कहा है। कर्म शत्रु में निधत्ति, निकाचितपना अपूर्वकरण नामक आठवें जीव और कर्म में भी जब जीव अपनी पर्यायगत योग्यता से धर्म गुणस्थान के अंतिम समय पर्यन्त रहता है। प्रगट नहीं कर पाता। अपने में अनन्तवीर्य अर्थात् सामर्थ्य होने पर भी mujhaa (71) जीव अपने वीतराग परिणामों को अपूर्व-अपूर्वरूप से बढ़ाता

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