Book Title: Adhyatmik Daskaran
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 20
________________ P दशकरण चर्चा - उसमें भी आयु न बँधे तो शेष आयु नौ वर्ष के दो भाग अर्थात् छह वर्ष बीतने के बाद तीन वर्ष की आयु शेष रहने पर तीसरा अपकर्ष काल होता है। - उसमें भी न बँधे तो एक वर्ष आयु शेष रहने पर चौथा अपकर्षकाल होता है। - भुज्यमान आयु के त्रिभाग-त्रिभाग में आठ अपकर्ष काल होते हैं। -आयुबंध के योग्य परिणाम (लेश्या का मध्यम अंश) इन अपकर्ष कालों में ही पाये जाते हैं। - ऐसा कोई नियम नहीं है कि इन अपकर्षकालों में आयु का बंध हो। बन्ध हो तो हो, न हो तो न भी हो । नहीं होने की ऐसी स्थिति में मरण के पहले एक अन्तर्मुहूर्तकाल में आयु का बंध नियम से होता है। -आयुबंध एक बार ही होता है ऐसा नहीं है। वह किसी भी अपकर्ष काल में होता है। पहले अपकर्षकाल में बंधी हुई आयु का ही अन्य अपकर्ष काल में बंध हो सकता है। भगवती आराधना दूसरा अधिकार, पृ.२१६ 24. प्रश्न :- अनुभागबन्ध किसे कहते हैं? - उत्तर :- जैसे पात्र (बर्तन) आदि के निमित्त से पुष्प आदि मदिरा रूप हो जाते हैं, उनमें ऐसी शक्ति होती है कि उनको पीने से पुरुष को (थोड़ा या बहुत) नशा चढ़ता है। - वैसे ही रागादि के निमित्त से जो पुद्गल कर्मरूप होते हैं उनमें ऐसी शक्ति पायी जाती है कि जिससे उदयकाल आने पर वे जीव के ज्ञानादि गुणों का थोड़ा या बहुत घात करने में निमित्त होते हैं। - बन्ध होते समय कर्म में उक्त प्रकार की फलदान शक्ति का होना ही अनुभाग-बन्ध है। 25. प्रश्न :- कुल बन्ध योग्य प्रकृतियाँ कितनी हैं? - उत्तर :- पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, छब्बीस मोहनीय, चार आयु, सड़सठ नाम, दो गोत्र और पाँच अन्तराय ये सब एक सौ बीस प्रकृतियाँ बन्ध योग्य हैं। आगम-आधारित प्रश्नोत्तर (बंधकरण) अ.१ विशेष इतना कि मोहनीय कर्म की सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति इन दो प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता, केवल उदय और सत्त्व होता है। बंध-सत्त्व एवं उदय प्रकृतियों के विषय में पण्डित द्यानतरायजी का निम्न छंद प्रसिद्ध है - बंध एक सौ बीस, उदय सौ बाइस आवै। सत्ता सौ अड़ताल, पाप की सौ कहलावै ।। पुन्यप्रकृति अड़सठ्ठ, अठत्तर जीवविपाकी। बासठ देह-विपाकि, खेत भव चउ चउ बाकी ।। इकईस सरबघाती प्रकृति, देशघाति छब्बीस हैं। बाकी अघाती इक अधिकसत, भिन्न सिद्ध सिवईस हैं।।२८।। तथा नामकर्म की ९३ प्रकृतियों में से पाँच बन्धन और पाँच संघात शरीर नामकर्म की साथ अविनाभावी हैं। इसलिये बन्ध और उदय अवस्था में इन दसों का अन्तर्भाव शरीर नामकर्म में ही कर लिया जाता है। - इसी तरह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के २० उत्तर भेदों को उन्हीं चार वर्णादि में गर्भित करके बन्ध और उदय अवस्था में केवल चार का ही ग्रहण किया जाता है। इसप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति २ + ५ बंधन + ५ संघात + स्पर्शादि की पर्याय १६ = २८ को घटाने पर बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १२० होती हैं। 26. प्रश्न : बंधकरण का पारिभाषिक स्वरूप क्या है? १. जीव, कषाय सहित होने पर कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है; वह कर्म योग्य पुद्गलों का ग्रहण बंध है। २. जीव और कर्म की एकरूपता अर्थात् एकीभाव बंध कहलाता है। (धवला १३/३४८) ३. मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगों से जीव और कर्म का जो एकत्वरूप परिणाम होता है, वह बंध है। (धवला ८/२) Annan Adhyatmik Dukaran Bank (20)

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