Book Title: Adhyatmik Daskaran
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 21
________________ आगमगर्भित प्रश्नोत्तर (बंधकरण) अ.१ ३. द्रव्यबंध, भावबंध और उभयबंध की अपेक्षा तीन प्रकार का है। (प्रवचनसार गाथा-१७७) ४. नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपों की अपेक्षा बंध चार प्रकार दशकरण चर्चा उदाहरण - पिघलाए हुए सोना और चाँदी की एकरूपता। यह बंध एक लकड़ी का अन्य लकड़ी से परस्पर संयोग जैसा नहीं है और वह आत्मा और उसका ज्ञान - ऐसा तादात्म्य संबंध जैसा भी नहीं। मात्र एकक्षेत्रावगाह रूप संयोग संबंध है। 27. प्रश्न : नामकर्म की प्रकृतियाँ ९३ बताई हैं, बन्धयोग्य ६७ ही कैसे हैं? ४. “पुरुषों के लिए कर्मबंध करनेवाला न तो कर्मयोग्य पुद्गलों से भरा हुआ लोक है, न चलन स्वरूप कर्म अर्थात् मन-वचनकाय की क्रिया है, न अनेकप्रकार के करण हैं और न चेतनअचेतन का घात है; किन्तु आत्मा में रागादि के साथ होनेवाली एकत्वबुद्धि ही एकमात्र बंध का वास्तविक कारण है।" 28. प्रश्न : बंध के संबंध में सामान्यरूप से विशेषताएँ बताइए। १. नवीन बंधनेवाला कर्म बंधते समय मिट्टी के ढेले के समान है; वह नसंयोग में निमित्त है न विकार में निमित्त है । समयसार गाथा-१६६ २. कर्म का जैसा, जितना बंध हो गया है, वह वैसा व उतना फल देगा ही -ऐसा निश्चित नहीं है; क्योंकि बंधा हुआ कर्म जीव के नये-नये परिणामों के निमित्त मिलने पर उदय में आने के पहले ही अन्य रूप में रूपान्तरित हो बदल सकता है। इसलिए पूर्वकृत पापकर्म से चिंतित व दुःखी होना व्यर्थ है। यह सिद्धान्त जीवों को पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देता है। ३. पूर्वबद्ध तीव्र पाप फल देनेवाला कर्म बदलकर हीन फलदेनेवाला हो सकता है अथवा पाप पुण्य में भी परिवर्तित हो सकता है। 29. प्रश्न : विभिन्न अपेक्षाओं से बंध के कितने भेद हैं? १. जीव और कर्मों का अन्योन्य संश्लेषरूप बंध, बंध सामान्य की अपेक्षा एक ही प्रकार का है। (त. राजवार्तिक १/७/१४) २. शुभ एवं अशुभ कर्मबंध की अपेक्षा बंध दो प्रकार का है। १. समयसार कलश १६४ ५. प्रकृति, प्रदेश, स्थिति एवं अनुभाग बंध की अपेक्षा से भी बंध चार प्रकार का है। ६. मिथ्यादर्शनादि कारण-भेद की अपेक्षा से बंध पाँच प्रकार का है। ७. नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से बंध छह प्रकार का है। ८. ज्ञानावरणादि मूल कर्म प्रकृति की अपेक्षा से बंध आठ प्रकार का है। ९. बंधयोग्य प्रकृति 120 प्रकार की है। अथवा भेद की अपेक्षा से बंध 146 प्रकार का है। (गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा ३७) १०. सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यकप्रकृति का बंध नहीं होता। 30. प्रश्न : बंध का सामान्य ज्ञान कराइए? १. सातावेदनीय के बंध के काल में असाता वेदनीय का बंध नहीं होता। २. रति के बंध के समय में अरतिरूप नोकषाय का बंध नहीं होता। ३. हास्य नोकषाय के बंध के समय में शोक का बंध नहीं होता। इसप्रकार की अनेक प्रकृतियाँ है। जैसे त्रस का बंध हो रहा हो तो स्थावर का बंध नहीं होता, एकेन्द्रिय का बंध नहीं होता। पुरुषवेद के बंध के समय में स्त्रीवेद तथा नपुंसकवेद का बंध नहीं होता। ४. जब तक बन्ध-व्यच्छित्ति नहीं होती. तब तक निरन्तर बँधने वाली प्रकृति ध्रुवबन्धी कहलाती है। (गो. क. १२४) ५. १२० बंधयोग्य प्रकृतियों में अज्ञानी अथवा अभव्यों को घातिकर्म की 47 प्रकृतियाँ निरंतर बंधती ही रहती हैं, उन्हें ध्रुवबंधी कहते हैं। ६. ध्रुवबंधी प्रकृतियाँ निम्नानुसार - ज्ञानावरण-५, दर्शनावरण की ९, मिथ्यात्व-१, चारित्र मोहनीय की अनंतानुबंधी आदि १६ कषाय, नोकषाय में से भय, जुगुप्सा-२, नामकर्म में से - Annan Adhyatmik Dukaran Book (21)

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