Book Title: Adhyatma Tri Path Sangraha
Author(s): Kailashchandra Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 5
________________ मुनिदशा प्रगट करने का मनोरथ मुनिराज की देह छूट जाए तो वहाँ रोनेवाला कोई नहीं है। रोनेवाला होगा कौन? कोई नहीं। मुनिराज तो गुफा के मध्य अन्तर आनन्द में स्थित होते हैं । अहा! देखो, ऐसा मुनिपना!! वह एक वस्तु स्थिति है - ऐसी दशा प्रगट करनी पड़ेगी। प्रभु! इसके बिना मुक्ति नहीं होगी। भाई! अकेले सम्यग्दर्शन और ज्ञान से कहीं मुक्ति नहीं हो जाती। श्रावक को तीन मनोरथ होते हैं - 1. कब परिग्रह का परित्याग करूँ, 2. कब मुनिपना अङ्गीकार करूँ और 3. कब संसार से छूटू? मुनिराज, परीषह और उपसर्ग आने पर प्रचुर पुरुषार्थपूर्वक निज ज्ञायक का अवलम्बन लेते हैं। श्रावक को अन्दर से ऐसी पवित्र मुनिदशा प्रगट करने का मनोरथ वर्तता है। (आत्मधर्म, वर्ष सोलहवाँ, वीर निर्वाण सम्वत् 2486) |

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