Book Title: Adhyatma Tri Path Sangraha
Author(s): Kailashchandra Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 7
________________ अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह देहादिक जो पर कहे, सो निज रूप न मान। ऐसा जान कर जीव तू, निज रूप हि निज जान॥११॥ निज को निज का रूप जो, जाने सो शिव होय। माने पर रूप आत्म का, तो भव भ्रमण न खोय॥१२॥ बिन इच्छा शुचि तप करे, जाने निज रूप आप। सत्वर पावे परम पद, लहे न पुनि भवताप ॥१३॥ 'बन्ध-मोक्ष' परिणाम से, कर जिन वचन प्रमाण। अटल नियम यह जानके, सत्य भाव पहचान॥१४॥ निज रूप के जो अज्ञ जन, करे पुण्य बस पुण्य। तदपि भ्रमत संसार में, शिव सुख से हो शून्य ॥१५॥ निज दर्शन ही श्रेष्ठ है, अन्य न किञ्चित् मान। हे. योगी! शिव हेतु अब, निश्चय तू यह जान॥ १६॥ गुणस्थान अरु मार्गणा, कहें दृष्टि व्यवहार। निश्चय आतमज्ञान जो, परमेष्टी पदकार ॥ १७॥ गृहकार्य करते हुए, हेयाहेय का ज्ञान। ध्यावे सदा जिनेश पद, शीघ्र लहे निर्वाण ॥१८॥ जिन सुमरो निज चिन्तवो, जिन ध्यावो मन शुद्ध। जो ध्यावत क्षण एक में, लहत परम पद शुद्ध ॥१९॥ जिनवर अरु शुद्धातम में, भेद न किञ्चित् जान। मोक्षार्थ हे योगिजन! निश्चय से तू यह मान॥ २०॥ जिनवर सो आतम लखो, यह सैद्धान्तिक सार। ज़ानि इह विधि योगिजन, तज दो मायाचार ॥ २१॥ जो परमात्मा सो हि मैं, जो मैं सो परमात्म। ऐसा जानके योगीजन! तज विकल्प बहिरात्म॥ २२॥ शुद्ध प्रदेशी पूर्ण है, लोकाकाश प्रमाण। सो आतम जानो सदा, लहो शीघ्र निर्वाण ॥२३॥

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