Book Title: Adhyatma Tri Path Sangraha
Author(s): Kailashchandra Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 11
________________ अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह तन विरहित चैतन्य तन, पुद्गल तन जड़ जान। मिथ्या मोह विनाश के, तन भी निज मत मान॥६१॥ निज को निज से जानकर, क्या फल प्राप्ति न पाय। प्रगट केवलज्ञान औ, शाश्वत सौख्य लहाय॥६२॥ यदि परभाव को तजि मुनि, जाने आप से आप। केवलज्ञान स्वरूप लहि, नाश करे भवताप ॥६३॥ धन्य अहो! भगवन्त बुध, जो त्यागे परभाव। लोकालोक प्रकाश कर, जाने विमल स्वभाव॥६४॥ मुनि जन या कोई गृही, जो रहे आतम लीन। शीघ्र सिद्धि सुख को लहे, कहते यह प्रभु जिन॥६५॥ विरला जाने तत्त्व को, श्रवण करे अरु कोई। विरला ध्यावे तत्त्व को, विरला धारे कोई॥६६॥ गृह परिवार मम है नहीं, है सुख-दुःख की खान। यों ज्ञानी चिन्तन करि, शीघ्र करें भव हानि॥६७॥ इन्द्र, फणीन्द्र, नरेन्द्र भी, नहीं शरण दातार। मुनिवर 'अशरण' जानके, निज रूप वेदत सार॥६८॥ जन्म-मरण एक हि करे, सुख-दुःख वेदत एक। नरक गमन भी एक ही, मोक्ष जाय जीव एक॥ ६९॥ यदि जीव तू है एकला, तो तज सब परभाव। ध्यावो आत्मा ज्ञानमय, शीघ्र मोक्ष सुख पाय॥७०॥ पाप तत्त्व को पाप तो, जाने जग सब कोई। पुण्य तत्त्व भी पाप है, कहें अनुभवी बुध कोई॥७१॥ लोह बेड़ी बन्धन करे, यही स्वर्ण का धर्म। जानि शुभाशुभ दूर कर, यह ज्ञानी का मर्म ॥७२॥

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