Book Title: Adhyatma Tri Path Sangraha
Author(s): Kailashchandra Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 14
________________ अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह तजि कल्पना जाल सब, परम समाधि लीन। वेदे जिस आनन्द को, शिव सुख कहते जिन ॥ ९७॥ जो पिण्डस्थ पदस्थ अरु रूपस्थ रूपातीत। जानों ध्यान जिनोक्त ये, होवो शीघ्र पवित्र ॥९८॥ सर्व जीव हैं ज्ञानमय, ऐसा जो समभाव। सो सामायिक जानिये, भाषे जिनवर राव॥९९॥ राग-द्वेष दोऊ त्याग के, धारे समता भाव। सो सामायिक जानिये, भाषे जिनवर राव॥१०॥ हिंसादिक परिहार से, आत्म स्थिति को पाय। यह दूजा चारित्र लख, पंचम गति ले जाय॥१०१॥ मिथ्यात्वादिक परिहरण, सम्यग्दर्शन शुद्धि। सो परिहार विशुद्धि है, करे शीघ्र शिव सिद्धि॥१०२॥ सूक्ष्म लोभ के नाश से, सूक्ष्म जो परिणाम। जानों सूक्ष्म चारित्र वह, जो शाश्वत सुख धाम॥१०३ ॥ आत्मा ही अरहन्त है, निश्चय से सिद्ध जान। आचारज उवझाय अरु, निश्चय साधु समान॥ १०४।। वह शिव शंकर विगु अरु रुद्र वही है बुद्ध। ब्रह्मा ईश्वर जिन यही, सिद्ध अनन्त अरु शुद्ध॥१०५॥ इन लक्षण से युक्त जो, परम विदेही देव। देहवासी इस जीव में, अरु उसमें नहिं भेद॥१०६॥ सिद्ध हुये अरु होंयगे, हैं अब भी भगवन्त । आतम दर्शन से हि यह, जानो होय निःशङ्क॥ १०७॥ भव भीति जिनके हृदय, 'योगीन्दु' मुनिराज। एक चित्त हो पद रचे, निज सम्बोधन काज॥१०८॥

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