Book Title: Adhyatma Tri Path Sangraha
Author(s): Kailashchandra Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 17
________________ . . अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह अन्य मुझे उपदेश दे, मैं उपदेणू अन्य। यह मम चेष्टा मत्तसम, मैं अविकल्प अनन्य॥१९॥ बाह्य पदार्थ नहीं ग्रहे, नहीं छोड़े निजभाव। सबको जानेमात्र वह, स्वानुभूति से ध्याव॥२०॥ करें स्तम्भ में पुरुष की, भ्रान्ति यथा अनजान। त्यों भ्रमवश तन आदि में, कर लेता निजभान॥२१॥ भ्रम तज नर उस स्तम्भ में, नहीं होता हैरान। त्यों तनादि में भ्रम हटे, नहीं पर में निजभान॥२२॥ आत्मा को ही निज गिनें, नहीं नारी-नर-षण्ठ। नहीं एक या दो बहुत, मैं हूँ शुद्ध अखण्ड ॥२३॥ बोधि बिना निद्रित रहा, जगा लखा चैतन्य। इन्द्रियबिन अव्यक्त हूँ, स्वसंवेदन गम्य॥२४॥ जब अनुभव अपना करूँ, हों अभाव रागादि। मैं ज्ञाता, मेरे नहीं, कोई अरि-मित्रादि॥२५॥ जो मुझको जाने नहीं, नहीं मेरा अरि मित्र। जो जाने मम आत्म को, नहीं शत्रु नहीं मित्र ॥२६॥ यों बहिरातम दृष्टि तज, हो अन्तर-मुख आत्म। सर्व विकल्प विमुक्त हो, ध्यावे निज परमात्म॥२७॥ 'मैं ही वह परमात्म हूँ', हों जब दृढ़ संस्कार। इन दृढ़ भावों से बने, निश्चय उस आकार ॥२८॥ मोही की आशा जहाँ, नहीं वैसा भय-स्थान। जिसमें डर उस सम नहीं, निर्भय आत्म-स्थान॥२९॥

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