Book Title: Adhyatma Tri Path Sangraha
Author(s): Kailashchandra Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

View full book text
Previous | Next

Page 22
________________ अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह 17 आत्मबुद्धि ही देह में, देहान्तर का मूल। आत्मबुद्धि जब आत्म में, हो तन ही निर्मूल॥७४॥ आत्मा ही भव-हेतु है, आत्मा ही निर्वाण। यों निश्चय से आत्म का, आत्मा ही गुरु जान ॥ ७५ ॥ आत्मबुद्धि है देह में, जिसकी प्रबल दुरन्त। वह तन-परिजन मरण से, होता अति भयवन्त ॥ ७६ ॥ आत्मबुद्धि हो आत्म में, निर्भय तजता देह। वस्त्र पलटने सम गिनें, तन-गति नहीं सन्देह ॥७७॥ जो सोता व्यवहार में, वह जागे निजकार्य। जो जागे व्यवहार में, रुचे न आतम-कार्य ॥ ७८ ॥ अन्तर देखे आतमा, बाहर देखे देह। भेदज्ञान अभ्यास जब, दृढ़ हो बने -विदेह ॥७९॥ ज्ञानीजन को जग प्रथम, भासे मत्त समान। फिर अभ्यास विशेष से, दिखे काष्ठ-पाषाण॥८०॥ सुने बहुत आतम-कथा, मुँह से कहता आप। किन्तु भिन्न-अनुभूति बिन, नहीं मुक्ति का लाभ॥ ८१॥ आत्मा तन से भिन्न गिन, करे सतत अभ्यास। जिससे तन का स्वप्न में, हो न कभी विश्वास ॥८२॥ व्रत-अव्रत से पुण्य-पाप, मोक्ष उभय का नाश। अव्रतसम व्रत भी तजो, यदि मोक्ष की आश॥ ८३॥ हिंसादिक को छोड़कर, होय अहिंसा निष्ठ। राग व्रतों का भी तजे, हो चैतन्य प्रविष्ठ॥ ८४॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34