Book Title: Adhyatma Tri Path Sangraha
Author(s): Kailashchandra Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 26
________________ अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह - तन धन घर तिय मित्र अरि, पुत्र आदि सब अन्य। स्व से भिन्न हैं सर्वथा, माने मूढ़ अनन्य॥८॥ चहुँदिशि से आकर विहग, रैन बसे तरु-डाल। उड़ प्रात: निज कार्यवश, यही जगतजन चाल॥९॥ त्रास दिया तब त्रस्त अब, क्यों हन्ता पर कोप?। अपराधी भी स्वयं झुके, हो जब दण्ड-प्रयो।॥१०॥ राग-द्वेष रस्सी बँधा, भव-सर घूमे आप। आत्म-भ्रान्तिवश आप ही, सह महा सन्ताप ॥११॥ विपदा एक टले नहीं, बाट बहुत-सी जोय। रहट बँधा घटकूप में, कभी न खाली होय ॥१२॥ अर्जन रक्षण है कठिन, फिर भी सत्वर नाश। रे! धनादि का सुख यथा, घृत से ज्वर ना नाश ।।१३॥ कष्ट अन्य के देखता, पर अपनी सुध नाहिं। तरु पर बैठा नर कहे, हिरण जले वन माँहि ॥१४॥ आयु-क्षय, धन-वृद्धि का, कारण जानो काल। धन प्राणों से प्रिय लगे, अतः धनिक बेहाल॥१५॥ निर्धन धन चाहे कहे, करूँ पुण्य , दान। कीच लिपे पर मानता, मूढ़ किया मैं स्नान॥१६॥ भोगार्जन दुःखद महा, प्राप्ति समय अतृप्ति। भोग-त्याग के समय कष्ट, सुधी छोड़ आसक्ति॥१७॥ हो जाते शुचि भी अशुचि, जिसको छूकर अर्थ। काया है अति विघ्नमय, उस हित भोग अनर्थ ॥१८॥

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