Book Title: Adhyatma Tri Path Sangraha
Author(s): Kailashchandra Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 27
________________ 22 अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह करें आत्म-उपकार जो, उनसे तन-अपकार। जो उपकारक देह के, उनसे आत्म-विकार ॥१९॥ चिन्तामणि-सा दिव्यमणि, और काँच के टूक। सम्भव है सब ध्यान से, किसे मान दें बुद्ध ?॥२०॥ निज अनुभव से प्रगट है, नित्य शरीर-प्रमान। लोकालोक निहारता, आतम अति सुखवान॥२१॥ कर मन की एकाग्रता, इन्द्रिय-विषय मिटाय। रुके वृत्ति स्वच्छन्दता, निज में निज को ध्याय ॥२२॥ जड़ से जड़ता ही मिले, ज्ञानी से निज ज्ञान। जो कुछ जिसके पास वह, करे उसी का दान॥२३॥ निज में निज को चिन्तवे, टले परीषह लक्ष। हो आस्रव अवरोध अरु, जागे निर्जर कक्ष ॥२४॥ 'मैं घट का कर्ता' यही, करे द्वैत को सिद्ध। ध्यान-ध्याता-ध्येय-में, द्वैत सर्वदा अस्त ॥ २५॥ मोही बाँधत कर्म को, निर्मोही छुट जाय। यातें गाढ़ प्रयत्न से, निर्ममता उपजाय ॥२६॥ मैं इक निर्मम शुद्ध हूँ, ज्ञानी योगी गम्य। संयोगज देहादि सब, मुझसे पूर्ण अगम्य ॥२७॥ देहादिक संयोग से, होते दुःख संदोह। मन वच तन सम्बन्ध को, मन वच तन से छोड़॥२८॥ किसका भय जब अमर मैं, व्याधि बिना क्या पीड़?। बाल-वृद्ध-यौवन नहीं, यह पुद्गल की भीड़॥२९॥

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