Book Title: Adhyatma Tri Path Sangraha
Author(s): Kailashchandra Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ 24 अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह देखता भी नहीं देखते, बोलत बोलत नाहिं । दृढ़ प्रतीति आतममयी, चालत चालत नाहिं ॥ ४१ ॥ कैसा किसका क्यों कहाँ ?, आदि विकल्प विहीन । तन को भी नहीं जानते, योगी अन्तर्लीन ॥ ४२ ॥ जहाँ वास करने लगे, रमे उसी में चित्त । जहाँ चित्त रमने लगे, हटे नहीं फिर प्रीत ॥ ४३ ॥ वस्तु विशेष विकल्प को, नहीं करता मतिमान | स्वात्म-निष्ठता से छुटे, नहीं बँधता गुणवान ॥ ४४ ॥ पर तो पर है दुःखद है, आत्मा सुखमय आप । योगी करते हैं अतः, निज-उपलब्धि अमाप ॥ ४५ ॥ करतो पुद्गल द्रव्य का, अज्ञ समादर आप । तजे न चतुर्गति में अतः, पुद्गल चेतन - साथ ॥ ४६ ॥ ग्रहण - त्याग व्यवहार बिन, जो निज में लवलीन | परमानन्द नवीन ॥ ४७ ॥ योगी को हो ध्यान से, साधु बहिर्दुःख में रहे, करते. परमानन्द से, प्रचुर दुःख- संवेदन कर्म हीन । प्रक्षीण ॥ ४८ ॥ करे अविद्या- नाश वह, ज्ञान- ज्योति पूछो चाहो अनुभवो है मुमुक्षु को उत्कृष्ट । इष्ट ॥ ४९ ॥ जीव जुदा पुद्गल जुदा, यही तत्त्व का सार । अन्य कुछ व्याख्यान सब, याही का विस्तार ॥ ५० ॥ भव्य 'इष्ट-उपदेश' सुन, तजि हठ माना मान । आत्मज्ञान - समता ग्रहे, ले अनुपम निर्वाण ॥ ५१ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34