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अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह
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आत्मबुद्धि ही देह में, देहान्तर का मूल। आत्मबुद्धि जब आत्म में, हो तन ही निर्मूल॥७४॥ आत्मा ही भव-हेतु है, आत्मा ही निर्वाण। यों निश्चय से आत्म का, आत्मा ही गुरु जान ॥ ७५ ॥ आत्मबुद्धि है देह में, जिसकी प्रबल दुरन्त। वह तन-परिजन मरण से, होता अति भयवन्त ॥ ७६ ॥ आत्मबुद्धि हो आत्म में, निर्भय तजता देह। वस्त्र पलटने सम गिनें, तन-गति नहीं सन्देह ॥७७॥ जो सोता व्यवहार में, वह जागे निजकार्य। जो जागे व्यवहार में, रुचे न आतम-कार्य ॥ ७८ ॥ अन्तर देखे आतमा, बाहर देखे देह। भेदज्ञान अभ्यास जब, दृढ़ हो बने -विदेह ॥७९॥ ज्ञानीजन को जग प्रथम, भासे मत्त समान। फिर अभ्यास विशेष से, दिखे काष्ठ-पाषाण॥८०॥ सुने बहुत आतम-कथा, मुँह से कहता आप। किन्तु भिन्न-अनुभूति बिन, नहीं मुक्ति का लाभ॥ ८१॥
आत्मा तन से भिन्न गिन, करे सतत अभ्यास। जिससे तन का स्वप्न में, हो न कभी विश्वास ॥८२॥ व्रत-अव्रत से पुण्य-पाप, मोक्ष उभय का नाश। अव्रतसम व्रत भी तजो, यदि मोक्ष की आश॥ ८३॥ हिंसादिक को छोड़कर, होय अहिंसा निष्ठ। राग व्रतों का भी तजे, हो चैतन्य प्रविष्ठ॥ ८४॥