________________
18
अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह
-
अन्तर्जल्प क्रिया लिये, विविध कल्पना-जाल। हो समूल निर्मूल तो, मोक्ष होय तत्काल॥८५॥ करें अव्रती व्रत-ग्रहण, व्रती ज्ञान में लीन। फिर हों केवलज्ञानयुत, बनें सिद्ध स्वाधीन ॥८६॥ लिङ्ग देह आश्रित दिखे, आत्मा का भव देह। जिनको आग्रह लिङ्ग का, कभी न होंय विदेह॥८७॥ जाति देह आश्रित कही, आत्मा का भव देह। जिनको आग्रह जाति का, सदा मुक्ति संदेह ॥८८॥ जाति-लिङ्ग से मोक्षपद, आगम-आग्रह वान। नहीं पावे वे आत्म का, परम सुपद निर्वाण ॥८९॥ बुध तन त्याग विराग-हित, होते भोग निवृत्त। मोही उनसे द्वेष कर, रहते भोग प्रवृत्त॥१०॥ यथा पंगु की दृष्टि का करे, ज्यों अन्धे में आरोप। तथा भेदविज्ञान बिन, तन में आत्मारोप॥ ९१॥ पंगु अन्ध की दृष्टि का, बुधजन जानें भेद। त्यों तन-आत्मा का करें, ज्ञानी अन्तर छेद॥९२॥ निद्रित अरु उन्मत्त को, सब जग माने भ्रान्त। अन्तर-दृष्टि को दिखे, सब जग मोहाक्रान्त ॥ ९३॥ हो बहिरातम शास्त्र-पटु, हो जाग्रत, नहीं मुक्त। निद्रित हो उन्मत्त हो, ज्ञाता कर्म-विमक्त ॥९४॥ जहाँ बुद्धि हो मग्न वहीं, हो श्रद्धा निष्पन्न। हो श्रद्धा जिसकी जहाँ, वहीं पर तन्मय मन॥९५॥