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अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह
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जहाँ नहीं मति-मग्नता, श्रद्धा का भी लोप। श्रद्धा बिन कैसे बने, चित्त-स्थिरता योग॥९६ ॥ जैसे दीप-संयोग से, वाती बनती दीप। त्यों परमात्मा ध्यान से, परमात्मा हो जीव॥९७॥ निजात्म के ध्यान से, स्वयं बने प्रभु आप। बाँस रगड से बाँस में, स्वयं प्रगट हो आग॥९८॥ भेदाभेद स्वरूप का, सतत चले अभ्यास। मिले अवाची पद स्वयं, प्रत्यावर्तन नाश ॥ ९९ ॥ पञ्चभूत से चेतना, यत्न-साध्य नहीं मोक्ष। योगी को अतएव नहीं, कहीं कष्ट का योग॥१०॥ देह-नाश के स्वप्न में, यथा न निज का नाश। जागृत देह-वियोग में, तथा आत्म अविनाशः॥१०१॥ दुःख-सन्निधि में नहीं टिके, अदुःख भावित ज्ञान। दृढ़तर भेद-विज्ञान का, अतः नहीं अवसान॥१०२॥ राग-द्वेष के यत्न से, हो वायु सञ्चार। वायु है तनयन्त्र की, सञ्चालन आधार ॥१०३ ॥ मूढ़ अक्षमय आत्म गिन, भोगे दुःख सन्ताप। सुधी तजे यह मान्यता, पावे शिवपद आप॥१०४॥ करे समाधितन्त्र का, आत्मनिष्ठ हो ध्यान। अहंकार-ममकार तज, जगे शान्ति सुख ज्ञान॥१०५॥