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इष्टोपदेश
परमब्रह्म परमात्मा, पूर्ण ज्ञानघन-लीन। वंदों परमानन्दमय, कर्म विभाव-विहीन॥१॥ पूज्यपाद मुनिराज को, नमन करूँ मनलाय। स्वात्म-सम्पदा के निमित्त, टीका करूँ बनाय॥२॥
प्रगटा सहज स्वभाव निज, हुए कर्म-अरि नाश। ज्ञानरूप परमातम को, प्रण मिले प्रकाश॥१॥ उपादान के योग से, उपल कनक हो जाय। निज द्रव्यादि चतुष्कवश, शुद्ध आत्मपद पाय॥२॥ मित्र राह देखत खड़े, इक छाया इक धूप। व्रत-पालन से स्वर्ग गति, अव्रत दुर्गति कूप॥३॥ जिन भावों से मुक्तिपद, कौन कठिन है। वहन कर दो कोश जो, कठिन कोश क्या अर्ध॥४॥ भोगें सुरगण स्वर्ग में, अनुपमेय सुख-भोग। निरातङ्क चिरकाल तक, हो अनन्य उपभोग॥५॥ सुख-दुःख केवल देह की, मात्र वासना जान। करें भोग भी विपत्ति में, व्याकुल रोग-समान॥६॥ मोहकर्म के उदय से, नहीं स्वरूप का ज्ञान। ज्यों मद से उन्मत्त नर, खो देता सब भान॥७॥