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अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह
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तिर्यक में तिर्यञ्च गिन, नर तन में नर मान । देव देह को देव लख करे मूढ़ पहिचान ॥ ८ ॥ नारक तन में नारकी, पर नहीं यह चैतन्य | है अनन्त धी शक्तियुत, अंचल स्वानुभवगम्य ॥ ९ ॥ जैसे निज की देह में, आत्म- कल्पना होय । वैसे ही पर- देह में, चेतनता संजोय ॥ १० ॥ कहै देह को आत्मा, नहीं स्व- पर पहचान । विभ्रमवश तन में करे, सुत-तियादि का ज्ञान ॥ ११ ॥ इस भ्रम से अज्ञानमय, जमते दृढ़ संस्कार | यो मोही भव-भव करें, तन में निज निर्धार ॥ १२ ॥ देहबुद्धिजन आत्म का, तन से करें सम्बन्ध | आत्मबुद्धि नर स्वात्म का, तन से तजे सम्बन्ध ॥ १३ ॥
जब तन में निज कल्पना, 'मम सुत-तिय' यह भाव । परिग्रह माने आपनो, हाय! जगत् दुर्भाव ॥ १४ ॥
जग में दुःख का मूल है, तन में निज का ज्ञान । यह तज विषय विरक्त हो, लो निजात्म में स्थान ॥ १५ ॥ इन्द्रिय-विषय विमुग्ध हो, उनको हितकर जान । 'मैं आत्मा हूँ' नहीं लखा, भूल गया निज - भान ॥ १६ ॥
वाहिर वचन विलास तज, तज अन्तर मन भोग । है परमात्म प्रकाश का, थोड़े
यह योग ॥ १७ ॥
रूप मुझे जो दीखता, वह तो जड़ अनजान । जो जाने नहीं दीखता, बोलूँ किससे बान ॥ १८ ॥