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अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह
यदि तुझ मन निर्ग्रन्थ है, तो तू है निर्ग्रन्थ। जब पावे निर्ग्रन्थता, तब पावे शिवपन्थ ।। ७३ ॥ ज्यों बीज में है बड़ प्रगट, बड़ में बीज लखात। त्यों ही देह में देव वह, जो त्रिलोक का नाथ ॥ ७४॥ जो जिन है सो मैं हि हूँ, कर अनुभव निर्धान्त। हे योगी! शिव हेतु तज, मन्त्र-तन्त्र विभ्रान्त ॥ ७५ ॥ द्वि-त्रि-चार-अरु पाँच छह सात पाँच और चार। नवं गुण युक्त परमात्मा, कर तू यह निराधार ॥७६॥ दो तजकर दो गुण गहे, रहे आत्म-रस लीन। शीघ्र लहे निर्वाण पद, यह कहते प्रभु-जिन ॥ ७७॥ त्रय तजकर त्रय गुण गहे, निज़ में करे निवास। शाश्वत सुख के पात्र वे, जिनवर करे प्रकाश ॥७८॥ कषाय संज्ञा चार तज, जो गहते गुण चार। हे जीव! निज रूप जान तू, होय पुनीत अपार ॥७९॥ दस विरहित दस के सहित, दस गुण से संयुक्त। निश्चय से जीव जान यह, कहते श्री जिनभूप॥८०॥ आत्मा दर्शन ज्ञान है, आत्मा चारित्र जान। आत्मा संयम शील तप, आत्मा प्रत्याख्यान ॥ ८१॥ जो जाने निज आत्म को, पर त्यागे निर्धान्त। यही सत्य संन्यास है, भाषे श्री जिन नाथ ॥८२॥ रत्नत्रय युत जीव ही, उत्तम तीर्थ पवित्र। हे योगी! शिव हेतु हित, तन्त्र-मन्त्र नहिं मित्र ॥ ८३॥ दर्शन सो निज देखना, ज्ञान जो विमल महान। पुनि-पुनि आतम भावना, सो चारित्र प्रमाण॥८४॥