Book Title: Adhyatma Tri Path Sangraha Author(s): Kailashchandra Jain Publisher: Tirthdham Mangalayatan View full book textPage 8
________________ अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह निश्चय लोक प्रमाण है, तनु प्रमाण व्यवहार। ऐसा आतम अनुभवो, शीघ्र लहो भवपारं ॥२४॥ लक्ष चौरासी योनि में, भटका काल अनन्त। पर सम्यक्त्व तू नहिं लहा, सो जानो निर्भान्त ॥२५॥ शुद्ध सचेतन बुद्ध जिन, केवलज्ञान स्वभाव। सो आतम जानों सदा, यदि चाहो शिवभाव॥२६॥ जब तक शुद्ध स्वरूप का, अनुभव करे न जीव। जब तक प्राप्ति न मोक्ष की, रुचि तहँ जावे जीव ॥ २७॥ ध्यान योग्य त्रिलोक में, जिन सो आतम जान। निश्चय से यह जो कहा, तामें भ्रान्ति न मान॥२८॥ जब तक एक न जानता, परम पुनीत स्वभाव। व्रत-तप सब अज्ञानी के, शिव हेतु न कहाय ॥ २९॥ जो शुद्धातम अनुभवे, व्रत संयम संयुक्त। जिनवर भाषे जीव वह, शीघ्र होय शिवयुक्त॥३०॥ जब तक एक न जानता, परम पुनीत सुभाव। व्रत-तप-संयम शील सब, निष्फल जानो दाव॥३१॥ स्वर्ग प्राप्ति हो पुण्य से, पापे नरक निवास। दोऊ तजि जाने आतम को, पावे शिववास ॥३२॥ व्रत-तप-संयम-शील सब, ये केवल व्यवहार। जीव एक शिव हेतु है, तीन लोक का सार ॥ ३३॥ आत्मभाव से आत्म को, जाने तज परभाव। जिनवर भाषे जीव वह, अविचल शिवपुर जाव॥ ३४ ॥ जिन भाषित षट् द्रव्य जो, पदार्थ नव अरु तत्त्व। कहा इसे व्यवहार से, जानों करि प्रयत्न॥ ३५॥ शेष अचेतन सर्व हैं, जीव सचेतन सार। मुनिवर जिनको जानके, शीघ्र हुये भवपार ॥ ३६॥Page Navigation
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