Book Title: Acharanga Stram Part 05
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 293
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ १०७८ ॥ www.kobatirth.org (सू० १७३ ) तिमि । छट्टओ सत्तिकओ ।। २-२-६ ॥ ते साधुने बीजो कोइ माणस शुद्ध अथवा अशुद्ध वचनवळ ते मंत्र विगेरेथी रोग समावे ( बिंदु विगेरे उतारे ) तो पोते सारु जाणे नहिं तथा बीजो मांदा साधुनी दवा माटे कंदमूळ विगेरे खोदीने खोदावीने लावीने दवा करे तो तेने सारं न जाणे बनी शके तो दुःख भोगवतां आवी भावना भाववी के पूर्वे जीवे कर्म कर्या छे अने तेनां फळ भोगवे छे माटे बीजा कंदमूळ विगेरेने | दुःस्व दइने तथा बीजा प्राणीओने शरीर मन संबंधी पीडा आपीने पोते फरीथी दुःख भोगवशे, कारणके पाणी भूत जांव सत्रो छे, ते हाल दरेक पोताना पूर्वे करेला कृत्यना विपाकने भोगवे छे कं छे के पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्तत्रायें न खलु भवति नाशः कर्मणां सञ्चितानाम् । इति सहगणयित्वा यद्यदायाति सम्यक्, सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्ते ? ।। १ ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हे साधु! तारे आ दुःखनो विपाक सहेवो जोइए; कारण के पूर्वे करेला कर्मोनो संचय करेलो छे ते समजीने हवे पछी जे जे सुख दुःख आवे ते समभावे सहन कर, ए सिवाय बीजे तारो विवेक क्यांथी होय? आ प्रमाणे छट्टाथी तेरमा सुत्री सात अध्ययन समाप्त छे. पूर्वे कला प्रमाणे बीजाए करेली क्रिया अनुमोदवी नहिं. तेम अहीं सातमा अध्ययनमां अन्य अन्य क्रिया पण करवानी निषेध करे छे. आ प्रमाणे छट्ठा सातमा अध्ययननो संबंध छे, नाम नि. निक्षेपामा अन्यो अन्य क्रिया एवं नाम छे तेनी बाकी रहेली reat गाथाने नियुक्तिकार कहे छे. अने छकं तं पुण तदनमाएसओ चैत्र || ३२५ || For Private and Personal Use Only सूत्रम् ૫૨૩૮૫

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